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ज्ञानसार
है । जो आत्मा इस कर्म का बंधन करती है, वह तीसरे भव में तीर्थ कर बनती है।
तीसरे भव में जब उस का जन्म होता है तब से ही संपत्ति ! गर्भावस्था में ही तीन ज्ञान से युक्त ! स्वाभाविक वैराग्य ! यही उन की आत्मिक संपत्ति है। जब कि भौतिक संपत्ति भी विपूल होती है.... यश, कीर्ति और प्रभाव भी अपूर्व होता है।
इत्थं ध्यानफलाद् युक्तं निंशतिस्थानकाद्यपि !
कष्टमाशं स्वाभट्यानामपि नो दुर्लभं भो ॥५॥२३७।। अर्थ : म तरद ध्यान के परिणामस्वरुप 'वीस-स्थानक' आदि तप भी योग्य
है, जबकि कष्टमात्ररुप [प] अभक्ष्यों को भी इस सांमार में दुर्लभ
विवेचन : शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि बीस स्थानक' तप तीर्थकरनामकर्म उपार्जन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। अर्थात् तोथंकर भगवान् अपने पूर्व के तीसरे भव में इस तप की आराधनासाधना कर तीर्थ कर नामकर्म उपार्जन करते हैं।
'समापत्ति' का फल यदि अप्राप्य हो तो कष्ट रूप तप की आराधना अभव्य भी करते हैं। लेकिन उन्हें समापत्ति का फल कहाँ उपलब्ध होता है ? अर्थात् तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन सिर्फ कष्टप्रद क्रियाएँ करने से संभव नहीं है। उसके लिए चाहिए समापत्ति !
जिस बीस स्थानक की आराधना करनी होती है, वे निम्नानुसार होते हैं:
१. तीर्थ कर २. सिद्ध ३. प्रवचन ४. गुरू ५. स्थविर ६. बहुश्रुत ७. तपस्वी ६. दर्शन ६. विनय १०. आवश्यक ११. शील १२. व्रत १३. क्षणलव-समाधि १४. तप-समाधि १५. त्याग (द्रव्य से) १६. त्याग (भावपूर्वक) १७. वैयावच्च १८. अपूर्वज्ञान-ग्रहण १६. श्रुत-भक्ति २०. प्रवचन- प्रभावना
चौबीस तीर्थ करों में से प्रथम ऋषभदेव एवं अंतिम महावीरदेव ने इन बीस स्थानकों की माराधना अपने पूर्वभवों में की थी, जब कि बोच के २२ तीर्थ कर-जिनेश्वरों में से किसी ने दो, किसी ने तीन इस
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