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ज्ञानसार
उभर सकता है !
यदि आत्मा अस्वच्छ, गन्दी और मैली हो तो उस में परमात्मा का प्रतिबिंब क्या उभरेगा? नाहक हाथ-पाँव मारने से काम नहीं चलेगा। यह सही है कि मलोन आत्मा में कभी परमात्मा का प्रतिबिंब नहीं उभरेगा। तब प्रश्न यह उठता है कि हमारी प्रात्मा में परमात्मा का प्रतिबिंब उभरे-ऐसी क्या हमारी हार्दिक इच्छा है ? तब हमें अपनी आत्मा को उज्ज्वल/दीप्तिमान बनानी चाहिए !
हम क्षीणवृत्ति बन जाएँ। मतलब, वृत्तियों का क्षय कर दें ! समग्र इच्छाओं का क्षय ! क्योंकि इच्छाएँ ही एकाग्रता में सर्वाधिक अवरोधक हैं । ज्यों ज्यों हम मलीनता-धुमिलता दूर करते जाएँगे त्यों त्यों हमारी प्रात्मा मणि की भाँति अपूर्व कांतिमय और पारदर्शक होती चली जाएगी, और तब परमात्मा का प्रतिबिंब अवश्य उभर आएगा।
अंतरात्मा निर्मल हो और एकाग्रता भी हो तो परमात्मा का प्रतिबिंब अवश्य उभरेगा। यही 'समापत्ति' है।
इस के लिए एक महत्वपूर्ण बात है क्षीणवृत्ति बनने की । समस्त इच्छा-आकांक्षाओं से मुक्ति ! एकाग्रता में सबसे बड़ा विध्न है-ये इच्छाएँ । इच्छा ही परमात्मा-स्वरुप के साक्षात्कार में अवरोधक है।
'मणेरिवाभिजातस्य क्षीणवृत्तेरसंशयम ।
तात्स्थ्यात् तदञ्जनत्वाच्च समापत्ति: प्रकीर्तिता।' 'सर्वोत्तम मणि की तरह क्षीणवत्ति आत्मा में परमात्मा के संसर्गारोप से और परमात्मा के अभेद अारोप से निःसंशय 'समापत्ति' होती
तास्थ्य : अंतरात्मा में परमात्मगुणों का संसर्गारोप। तदञ्जनत्व : अंतरात्मा में परमात्मा का अभेदारोप ।
'संसर्गारोप, किसे कहते है ? यही जानना चाहते हो न? आरोप के दो प्रकार हैं । संसर्ग और अभेद । सिद्ध परमात्मा के अनंत गुणों में अंतरात्मा का आरोप यानी संसर्ग-पआरोप । परमात्मा के अनंत गुणों में एकाग्रता का प्रादुर्भाव होते ही समाधि प्राप्त होती है । समाधि ही ध्यान का फल है, यही अभेद-आरोप है।
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