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ज्ञा नसार
अर्थ : ध्यान-कनी अंतरात्मा है, ध्यान करने योग्य परमात्मा हैं और
ध्यान एकाग्रता की बुद्धि है। इन तीनों की एकता ही समापत्ति
विगेचन: अन्तरात्मा बने बिना ध्यान असंभव है। बहिरात्मदशा का परित्याग कर अन्तरात्मा बन कर ध्यान करना चाहिए । यदि हम सम्यग दर्शन से युक्त हैं तो निःसंदिग्धरुप से अंतरात्मा हैं ।
जिस की दृष्टि सम्यग् हो, वहां ध्येयरूपी परमात्मा के दर्शन कर सकता है अर्थात् एकता साध सकता है। इसी दृष्टि से सम्यग दृष्टि जीव को ही ध्यान का अधिकार दिया गया है।
ध्यान करने योग्य यदि कोई है तो सिद्ध परमात्मा । आठ कर्मों के क्षय से जिन अात्मानों का शद्ध-विशुद्ध स्वरुप प्रकट हया है, ऐसी शुद्धात्माएँ ध्येय हैं । अथवा वे अात्माएँ जो कि घाती कर्मों के क्षय से अरिहंत बने हैं वे ध्येय हैं। 'प्रवचनसार' ग्रन्थ में ठीक ही कहा है :
जो जाण दि अरिहंते दव्वत-गुणत्त-पज्जवत्तेहिं ।
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।। _ 'जो अरिहंत को द्रव्य-गुण एवं पर्याय रूप में जानता है, वह प्रात्मा को जानता है, और उसका मोह नष्ट होता है।'
अरिहंत को लक्ष्य बना कर अंतरास्मा ध्यान में लीन होती है। ध्यान का अर्थ है एकाग्रता को बुद्धि, सजातीय ज्ञान को धारा । अंतरास्मा ध्येय रुपी अरिहंत में एकाग्र हो जाए । अरिहंत के द्रव्य, गुण और पर्याय सजातीय ज्ञान है....। तात्पर्य यह है कि द्रव्य, गुण और पर्याय से अरिहंत का ध्यान धरना चाहिए । 'ध्यान शतक' में ध्यान का स्वरूप दर्शाया है :
जं थिरमझवसाणं तं झाणं चलं तयं चित्तं ।
तं होज्ज भावणा वा अणुप्पेहा वा अहव चिंता ।। 'अध्यवसाय यानी मन । और स्थिर मन यही ध्यान है। चंचल मन को चित्त कहा जाता है। ध्यान की वह क्रिया भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिंतन स्वरुप होती है।'
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