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श्रर्थ
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ज्ञानमेव बुधा: प्राहुः कर्मणां तापनात् तपः । तदाभ्यन्तरमेवेष्टं बाह्यं तदुपबृंहकम् ॥ १॥२४१॥
पंडितों का कहना है कि कर्मो को तपाने वाला होने से तप, ज्ञान ही है | यूं अंतरंग तप ही इष्ट है, उसे वृद्धिंगत करने वाला बाह्य तप भी इष्ट ही है ।
ज्ञानसार
विवेचन : भला ऐसा कौन भारतीय होगा, जो 'तप' शब्द से अनभिज्ञ अपरिचित हो ? तप करने वाला तो तप से परिचित है ही, लेकिन जो तप नहीं करता है वह भी इस से भलीभाँति परिचित है ! वेसे आम तौर पर समाज में 'तप' शब्द अमुक प्रकार के बाह्य तप के रूप में ही प्रसिद्ध है | तपश्चर्या क्यों की जाए ? तप कैसा किया जाय ? तपश्चर्या कब की जाए ? आदि कइ बातें हैं, जिन पर सोचना प्रायः बंद हो गया है ।
इस संसार में सुखी लोगों की तरह दुःखी लोग भी पाये जाते हैं ! उस में भी सुखी कम, दुःखो ज्यादा ! वास्तविकता यह भी है कि सुखी सदा के लिय सुखी नहीं, वैसे दुःखी सदा के लिए दुःखी नहीं....! यही तो यक्ष प्रश्न है । भला ऐसा क्यों ? तो क्या ग्रात्मा का स्वभाव ही ऐसा है ? नहीं, आत्मा का स्वभाव तो अनंत सुख है, शाश्वत् सुख है ! तब क्या है ? शास्त्रकारों का कहना है कि श्रात्मा पर 'कर्म' का आवररण छाया हुआ है, अतः जीव के जिस वाह्य रूप के हमें दर्शन होते हैं, वह कर्मजन्य रूप है ! आत्मा के इस रूप - स्वरूप का निर्णय केवलज्ञानी वीतराग ऐसे परमात्मा द्वारा बहुत पहले ही किया गया है ।
परम सुख और अक्षय शांति प्राप्त करने के लिए आत्मा को कर्मबंधन से मुक्त करना ही पड़ता है । यह कर्म-बंधन को तोड़ने का अपूर्व, एकमेव साधन तप है ! कर्म-क्षय के लिए तपश्चर्या करनी होती है । कहा गया है : 'कर्मरणां तापनात् तपः' अर्थात् कर्मों को जो तपाये, वह तप है । तपाने का अर्थ है नाश करना ।
तपस्वी का लक्ष्य हमेशा कर्म-क्षय ही होना चाहिए । तप के मुख्य दो भेद है : बाह्य और अभ्यन्तर ।
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