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शानसार
अर्थ :- लोकप्रवाह का अनुसरण करने की अज्ञानी की वृत्ति, उसकी सुख
शीलता है । जबकि ज्ञानी पुरुषों की, विरुद्ध प्रवाह में चलने रुप
वृति उत्कृष्ट तप है । विवेचन : संसार के तीव्र गतिवाले महाप्रवाह !
— महाप्रवाह की प्रचंड बाढ में जो बह गये, उन का इतिहास निहायत रोंगटे खडा कर देनेवाला है । अरे, राव-रंक तो क्या, अपनी हँकार से धरती को एक छोर से दूसरे छोर तक कंपानेवाले, भयभीत करनेवाले रथी-महारथी, चक्रवर्ती, वासुदेव और प्रतिवासुदेव, राजा-महाराजा इस महाकाल की बाढ में बह गये....! इस के बावजूद भी प्रलयंकारी महाप्रवाह थमा कहां है ? आज भी पूर्ववत् बह रहा है....और वह भी एक प्रकार का नहीं, बल्कि अनेक प्रकार का हैं ।
'खाना-पीना और मौज-मस्ती मारना ! ऐसा ही चलता है और चलता रहेगा ! हम तो संसारी जो ठहरे ! सब चलता है ! अरे भाई. अपना मन शुद्ध-साफ रखो, तप करने से और क्या होना है ?' संसार में ऐसे कई लोकप्रवाह हैं । और उस के बहाव में प्रबाहित होकर तप की उपेक्षा करनेवाले अज्ञानी जीवों की इस दुनिया में कमी नहीं है। मानव की सुखशीलता उसे ऐसे बहाव में खींच ले जाती है और वह हमेशा ऐसी ही प्रवृत्ति का अनुसरण करता हैं। जिसमें अधिक कष्ट न हो, दिमागपच्ची न हो और शरीर को किसी प्रकार की तकलीफ न पड़े।
लेकिन जो विद्वान है, विचारक हैं और चितक हैं, वे प्रचलित लोकप्रवाह के विपरीत चलनेवाले होते हैं ! उन्होंने सुखशीलता का त्याग किया होता है। नानाविध प्रापत्ति, वेदना, यातनाएँ और कष्टों को हँसते-हँसते झेलने की उन की तैयारी होती है ! वे धर्म बुद्धि और धार्मिकवृत्ति से प्रेरित होकर उत्कृष्ट तपश्चर्या करते हैं । वे मन ही मन चिंतन करते हैं : "प्रव्रज्या ग्रहण कर तीर्थंकर स्वयं भी तप करते हैं....अलबत्ता, उन्हें भली-भाँति ज्ञान है कि वे केवलज्ञान के अधिकारी बनेंगे, फिर भी घोर तपश्चर्या का प्रालम्बन ग्रहण करते हैं ! तब हे जीव ! तुम्हें तो तप करना ही चाहिये ।"
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