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शनसार विवेचन : धन-संपत्ति के लालची मनुष्य को, दांत किटकिटाने वाली तीव्र सर्दी और आग बरसानेवाली गरमी की भरी दोपहरी में भटकते देखा होगा ? उस से तनिक प्रश्न करना : "अरे भई, इतनी तीव्र सर्दी में भला तुम क्यों भटक रहे हो ? तन-बदन को ठिठुरन से भर दें ऐसी कडाके की सर्दी क्यों सहन कर लेते हो?अाग-उगलती तीव्र गरमी के थपेड़े क्यों सहते हो ?" . प्रत्युत्तर में वह कहेगा : “कष्ट झेले बिना, तकलीफ और यातनाओं को सहे बिना धन-संपत्ति नहीं मिलती ! जब ढेर सारा घन मिल जाता है तब सारे कष्ट भूल जाते हैं।"
ना खाने का ठिकाना, ना पीने का ! कपड़ों का ठाठ-बाठ नहीं! एशो-नाराम का नाम निशान नहीं ? धन-संपदा के पीछे दीवाना बन, घूमने वाले को कष्ट कष्टरूप नहीं लगता, ना ही दुःख दुःखरूप लगता है ! तब भला, जिसे परम तत्त्व के बिना सब कुछ तुच्छ प्रतीत हो गया, ऐसे भवविरक्त परमत्यागी महात्मा को शीत-तापादि कष्टरूप लगेंगे क्या ? पादविहार और केशलुंचन आदि कष्टदायी प्रतीत होंगे क्या ?
__ अरे, परमतत्त्व की प्राप्तिहेतु भवसुखों से विरक्त बन राजगृही की पहाड़ियों में प्रस्थान कर.... उत्तप्त चट्टान पर नंगे बदन सोने वाले धन्नाजी और शालिभद्र को वे कष्ट कष्टरूप नहीं लगे थे ! उन के मन वह सब स्वाभाविक था !
जो मनुष्य भव से विरक्त नहीं, सांसारिक-सूखों से विरक्त नहीं, ना ही परमतत्त्व-प्रात्मस्वरुप प्राप्त करने को हृदय में भावना जाग्रत हई, ऐसे मनुष्य के गले यह बात नहीं उतरेगी । जिसे भव-संसार के सूखों में ही दिन-रात खोये रहना है, भौतिक सुखों का परित्याग नहीं करना है और परम तत्त्व की अनोखी बातें सुन, उसे प्राप्त करने की चाह रखता है, वैसा मनुष्य प्रायः ऐसा मार्ग खोजता है कि कष्ट सहे बिना ही आसानी से परम तत्त्व की प्राप्ति हो जाय ।
भव-विरक्ति के बिना परम तत्त्व की प्राप्ति असंभव ही है । ठीक वैसे ही भव-विरक्ति और परम तत्त्व की प्राप्ति की तीव्र लालसा के बिना उपसर्ग और परिसह सहना भी असंभव है ! इतिहास साक्षी है कि जिन महापुरूषों ने उपसर्ग और परिसह सहन किये थे, वे सब भवविरक्त थे, एवं परम तत्त्व की प्राप्ति के चाहक थे !
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