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नियाग [यज्ञ] अहंकार का नामोनिशान !
__ 'नाहं पुदगलभावानां कर्ता कारयितापि च ।'
"मैं पुद्गलभावों का कर्ता नहीं हूँ, ना ही प्रेरक भी।' यह विचार ग्रन्थकार महर्षिने हमें पहले ही बहाल कर दिया है। अत: कर्तृत्व का मिथ्याभिमान ब्रह्म यज्ञ में नष्ट कर दो-यही इष्ट है, इच्छानीय भी।
ब्रह्मण्यर्पितसर्वस्वो ब्रह्मग ब्रह्मसाधनः ! ब्रह्मणा जुहवदब्रह्म ब्रह्मणि ब्रह्मगुप्तिमान् ।।७।।२२३।। ब्रह्माध्ययननिष्ठावान् परब्रह्मसमाहितः !
ब्रह्मणो लिप्यते नाधैर्नियागप्रतिपत्तिमान् ॥८॥२२४॥ अर्थ :
जिसने अपना सर्वस्व ब्रह्मार्पण किया है, ब्रह्म में ही जिसकी दृष्टि है और ब्रह्मरूप ज्ञान ही जिस का एकमात्र साधन है-ऐसा (ब्राह्मण) ब्रह्म में अज्ञान (असंयम) को नष्ट करता ब्रह्मचर्य का गुप्तिधारक, 'ब्रह्माध्ययन' का . मर्यादावान् और पर ब्रह्म में समाधिस्थ भावयज्ञ को स्वीकार करनेवाला निर्ग्रन्ध किसी भी पाप से लिप्त
नहीं होता। विवेचन : खद का कुछ भी नहीं! जो कुछ है सब ब्रह्म-समर्पित ! धनघान्य, ऐश्वर्य-वैभवादि तो अपना नहीं हो, यहाँ तक कि शरीर भी अपना नहीं..... अरे, शरीर तो स्थूल है, लेकिन सूक्ष्म ऐसे मन के विचार भी अपने नहीं ....। किसी विचारविशेष के लिए हठाग्रह नहीं ! उस की दृष्टि सिर्फ ब्रह्म की ओर ही लगी रहती है। सिवाय ब्रह्म के कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता ! भले ही फिर उसकी अोर अनगिनत नजरें लगी हों....लेकिन उस की निनिमेष दृष्टि सिर्फ ब्रह्म की ओर ही लगी रहती है ! साथ ही उसके पास जो ज्ञान होता है वह भी ब्रह्मज्ञान ही होता है। ब्रह्मज्ञान अर्थात् प्रात्म-ज्ञान ! उपयोग सिर्फ आत्मज्ञान का हीं, अर्थात् सदैव मानसिक जागृति के माध्यम से ब्रह्म में सीनता ही अनुभव करें।
और जबतक उस के पास अज्ञान के इंधन हो तबतक वह उसे ब्रह्म में ही स्वाहा करता रहे । जला कर भस्मीभूत कर दें। साथ ही * परिशिष्ट में देखिए 'ब्रह्माध्ययन'
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