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झानसार
प्राकृत मनुष्य सदैव कर्म करता रहता है और फल की इच्छा संजोये निरंतर दुःखी रहता है । इस दुर्दशा में से जीवों को मुक्त करने उपदेश दिया जाता है कि कर्म के कर्तृत्व का मिथ्याभिमान हमेशा के लिए छोड दो! 'यह मैंने किया है, इसका कर्ता मैं हूँ !' आदि कर्तुत्व के अहंकार को ब्रह्मरूप अग्नि में स्वाहा कर दो, होम दो। और नित्य प्रति यह भावना जागत रखो कि 'मैं कुछ भी नहीं करता।' इसी भावना मे कर्मक्षय संभव है । यही कर्मयज्ञ ब्रह्मयज्ञ का मूल माधन है। गीता में कतत्व के अभिमान को तजने को कहा गया है :
ब्रह्मर्पणं ब्रह्मविब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ।।।
-अध्याय, ४, श्लोक २४. "अर्पण करने की क्रिया ब्रह्म है। होमने की वस्तु ब्रह्म है । ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरुप होमनेवाले ने जो होमा है वह भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्म-समाधि वाले का प्राप्ति-स्थान भी ब्रह्म है।"
अर्थात् 'जो कुछ है, वह ब्रह्म है...ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। न मैं हूँ और ना ही कुछ मेरा है ! इस तरह 'अहं' को भूलने के लिए ही यन करना है । जो कुछ भी है, उसे ब्रह्म में ही होम देना है । 'अहं' को भी ब्रह्म में स्वाहा कर देना है। यही वास्तविक ब्रह्मयज्ञ है । 'अहं' रूपी पशु को ब्रह्म में स्वाहा कर यज्ञ करने का उपदेश दिया गया है।
जो कुछ बुरा हुआ तब में क्या करू भगवान की यही मजी थी।' कह कर जीव उसे भगवान को अर्पण कर देता है, उनके नाम पर थोप देता है। लेकिन जो अच्छा होता है, इच्छानुसार होता है और मन-पसंद भी, 'वह मैंने किया है....मेरे पुण्योदय के कारण हुआ है।' कह कर मिथ्याभिमान का सरेग्राम ढिंढोरा पिटना निरी मूर्खता और मूढता है। जब कि भगवान के अस्तित्व के प्रति अटूट श्रद्धाधारक तो प्रायः यही कहता है कि 'जो कुछ होता है भगवान की मर्जी से होता है।' उसके हर विचार, हर चिंतन, और प्रत्येक व्यवहार का सूत्र भगवान के साथ जुड़ा हुआ है ! उसमें अपना कुछ भी नहीं होता, ना ही २८
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