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ज्ञानसार
अब तुम्हें अपने विचारों को पवित्र बनाना है। जिस परम आत्मा का पूजन करने की तुम्हारी उत्कट इच्छा है, उनके (परमात्मा के) गुणों में तन्मयता साधने की भावनाओं के द्वारा अपने विचारों को पवित्र बनाना है। अर्थात, शेष सभी भौतिक कामनाओं की अपवित्रता तज कर केवल परमात्मगुणों की ही एक अभिलाषा लेकर तुम्हें परमात्ममन्दिर के द्वार पर पहुँचना है। जब तक परमात्म-गुणों का ही एक मात्र आकर्षण और ध्यान दृढ़ न हो जाए, तब तक आशय-पावित्र्य की अपेक्षा करना वृथा है...और देवपूजन के लिये आशय-पवित्रता के बिना चल नहीं सकता।
चलो, अब केशर का सुवर्णपात्र भर लो। अरे भई, यह केशर लो और यह चन्दन । शिला पर घिसना शुरू कर दो। भक्ति का केशर श्रद्धा के चन्दन से खब घिसो, जी भरकर घिसो। भक्ति का लाल रंग और श्रद्धा की मोहक सौरभ । केशरमिश्रित चन्दन से पूरा सूवर्ण-पात्र भर दो।
परमाराध्य परमात्मा की आराधना के अंग-प्रत्यंग में अदम्य उत्साह और अपूर्व प्रानन्द । साथ ही 'यह परमात्मा-प्राराधना ही परमार्थ है,' ऐसा दृढ़ विश्वास | अरे, उस प्रेम-दीवानी मीरा का तो तनिक स्मरण करो। कृष्ण के प्रति उसके हृदय में रही अपूर्व श्रद्धा और भक्ति के कारण वह प्रसिद्ध हो गयी। उसकी दुनिया ही कृष्णमय बन गयी थी।
अब मन्दिर में चलो।
मंदिर को बाहर कहीं खोजने की आवश्यकता नहीं, ना ही दूरसुदूर उसकी खोज में जाने की आवश्यकता है। तुम अपनी देह को ही स्थिर दृष्टि से, निनिमेष नजर से निरखो। यही तो वह मन्दिर है। जानते हो, देव इसी देह-मन्दिर में विराजमान हैं, प्रतिष्ठित हैं। लो, तुम तो आश्चर्यचकित हो गये ? वैसे, आश्चर्य करने जैसी ही बात है। देह के मन्दिर में ही शुद्ध आस्मदेव प्रतिष्ठित हैं। उनके दर्शनार्थ आँखें मूंदनी होगी....आन्तर दृष्टि खोलनी होगी....। दिव्य विचारों का आधार लेना होगा।
शुद्ध प्रात्मा का तुम्हें नवांग-पूजन करना होगा । नवविध ब्रह्मचर्य ही शुद्धात्मा के नौ अंग हैं ।
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