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भावपूजा
४४४ वह है-शुभ संकल्प । ज्ञानाग्नि में शुभ संकल्पस्वरूप धूप डालकर आत्ममन्दिर में सुगन्ध फैलानी है ।
आत्मा के शुभ स्वरूप का ज्ञान ! सिर्फ आत्म-रमणता ! अशुभ का वहाँ स्थान नहीं और शुभ संकल्प की भी आवश्यकता नहीं। परमात्म-पूजन में प्रशस्त अनुराग होता है । परमात्मा के प्रति रागअनुराग.... पूजन-क्रिया की अभिरूचि यही तो शुभ संकल्प है । इन शुभ संकल्पों का आत्म-रमणता में विलीनीकरण करने की कृष्णागरू धूप की मीठी महक आत्म-मन्दिर में फैल जाती है ।
- कैसी अद्भत, अनोखी और अभिनव धुप-पूजा बताई है ! परमात्मा के मन्दिर में जाकर धूप-पूजा करने वाले भाविकजन अगर प्रस्तुत दिव्य धूप-पूजा करने लगे तो ? अरे, मन्दिर की बात तो ठीक, लेकिन प्रात्ममन्दिर में स्थिर चित्त से धपपूजा में मग्न हो जाए तो उक्त साधक के इर्द-गिर्द, चारों ओर कैसी मनभावन सुगंध फैल जाए ?
-आठ प्रकार के मदों के त्याग की भावना ही अष्टमंगल के आलेखन की पूजा है ।
-शुभ संकल्पों का आत्मज्ञान में विलीनीकरण ही धूपपूजा है ।
न जाने कब ऐसा अपूर्व अवसर पाएगा कि ऐसी पूजा कर परमानन्द का प्रास्वादन कर सकेंगे ? .
प्राग्धर्मलवणोत्तारं, धर्मसन्यासवहिनना ।
कुर्वन् पूरय सामर्थ्यराजन्नीराजनाविधिम् ।।५।।२२६॥ अर्थ :- धर्मसन्यास रुषी अग्नि द्वारा पूर्ववती क्षायोपशमिक धर्मस्वरुप लवण
उतारते (उसका परित्याग करते) सामर्थ्य-योगरूपी भारती की
विधि पूरी करो। विवेचन :- धर्म-सन्यास अग्नि है ।
0 प्रौदयिक धर्म और क्षायोपशमिक धर्म लवण है।
® सामर्थ्य योग सुन्दर, सुशोभित आरती है । पूजन-विधि में निम्नांकित दो विधियाँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती हैं१. लवण उतारना और, २. आरती उतारना ।
उपर्युक्त दोनों क्रियाओं को यहाँ कैसा तात्त्विक स्वरूप प्रदान
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