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परिग्रह-त्याग
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ठीक लगे-वैसे बांटवा दें तो बड़ी कृपा होगी।"
और भक्त ने सौ-सौ की दस नोट उनके सामने रख दीं । त्यागी पुरुष पल-दो पल के लिए मौन रहे। उन्होंने तीक्ष्ण नजर से एक बार उसकी ओर देखा और तब बोले : 'भाग्यशाली, यह काम तुम अपने मुनीम को सौंप दो । मैं तुम्हारा मुनीम नहीं है।" धनिक क्षणार्ध के लिये स्तब्ध रह गया । उसने चुपचाप नोट उठा लिये और क्षमायाचना कर नतमस्तक हो, चना गया । वह मन हो मन त्यागी पुरूष की महानता और विराट ध्यक्तित्व से गद्गद् हो उठा ।।
परिग्रह इसी तरह आहिस्ता-आहिस्ता मुनिजीवन में प्रवेश करता है । यदी ऐसे समय जरा भी सावधानी न बरती गयी तो समझ लो कि परिग्रह को दुष्ट चाल में फस गये । श्रीमद हेमचन्द्राचार्यजी ने ठीक ही कहा है :
तप:श्रुतपरिवारां शमसाम्राज्यसंपदम । परिग्रहप्रस्तास्त्यजेयुर्योगिनोीि हि ॥
-योगशास्त्र परिग्रह का पाप-ग्रह जब योगी पुरूषों को ग्रसित करता है, तब वे त्याग, तप, ध्यान, ज्ञान, क्षमा, नम्रतादि अभ्यन्तर लक्ष्मी का सदा के लिये त्याग कर देते हैं । इतना ही नहीं, बल्कि जिनमत के अपरिग्रहवाद का विकृत ढंग से प्रतिपादन करते हैं । क्या तुमने कभी वेषधारियों को अपने परिग्रह का बचाव करते देखा नहीं है ?"उपमिति" ग्रन्थ में कहा गया है कि, 'ऐसे जीव अनंत काल तक संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं।'
यस्त्यक्त्वा तृणवद बाह्यमान्तरं च परिग्रहम् ।
उदास्ते तत्पदांभोज पर्युपास्ते जगत्त्रयो ॥३॥१६॥ अर्थ :- जो तुरण के समान बाह्य-प्राभ्यन्तर परिग्रह का परित्याग कर, सदा
उदासीन रहते हैं, उनके चरणकमलों की तीन लोक सेवा करते हैं । विवेचन :- वे महापुरुष सदा वन्दनीय और पूजनीय हैं जो धन-संपदा पुत्र-परिवार, सोना-चांदी, हीरे-मोती आदि का स्वेच्छा से त्याग करते हैं । वे महात्मा सदैव पूजन-अर्चन योग्य हैं, जो मिथ्यात्व, अविरति.
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