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अनुभव
पश्यतु ब्रह्म निर्द्वन्द्वं निर्द्वन्द्वानुभवं बिना !
कथं लिपिमयी दृष्टिर्वाङमयी वा मनोमयी ॥६॥२०६॥ अर्थ : कनेशरहित शुद्ध अनुभव के बिना पुस्तक रुप, वाणीरुप, अथ के
__ ज्ञानरुप दृष्टि, राग-द्वेषादि से सर्वथा रहित विशुद्ध आत्म-स्वरुप को
कैसे देख सकते हैं ? विवेचन : चर्म-दृष्टि, शास्त्र-दृष्टि और अनुभव-दृष्टि !
जिस पदार्थ का दर्शन अनुभव-दृष्टि से ही संभव है, उस पदार्थ को चर्म-दृष्टि अथवा शास्त्र-दृष्टि से देखने का प्रयत्न करना शतप्रतिशत व्यर्थ है । कर्म-कलंक से मुक्त विशुद्ध ब्रह्म का दर्शन चर्म-दृष्टि से सर्वथा असंभव है और शास्त्र-दृष्टि से भी। उसके लिए आवश्यक है अनुभव-दृष्टि !
लिपिमयी दृष्टि, वाङमयो दृष्टि, मनोमयी दृष्टि ! इन तीनों दृष्टि का समावेश शास्त्र-दृष्टि में होता है । साथ ही, ये तीनों दृष्टि विशुद्ध आत्म-स्वरुप को देखने में सर्वदा असमर्थ हैं। ___लिपि' संज्ञाक्षर रुप होती है। भले वह लिपि हिंदी हो, संस्कृत हो, गुजराती हो अथवा अंग्रेजी हो। केवल अक्षर-दृष्टि से परम ब्रह्म का दर्शन नहीं होता है। वाड़मयी-दृष्टि व्यंजनाक्षर स्वरूप है, अर्थात् अक्षरों का उच्चारण करने मात्र से परम ब्रह्म का दर्शन नहीं होता है। जबकि मनोमयी दृष्टि अर्थ के परिज्ञान रूप है,-मतलब, कितना ही उच्च श्रेणी का अर्थज्ञान हमें प्राप्त हो जाए, लेकिन उस के माध्यम से क्लेशरहित विशुद्ध आत्म-स्वरुप का प्रत्यक्ष में दर्शन असंभव ही है।
यदि कोई यह कहता है : “पुस्तक-पठन से और ग्रन्थाध्ययन करने से परम ब्रह्म के दर्शन होते हैं !' तो यह निरा भ्रम है। कोई कहता है कि 'श्लोक, शब्द अथवा अक्षरों का उच्चारण करने से आत्मा का दर्शन होता है, तो यह भी यथार्थ नहीं। कोई कहता हो कि 'शास्त्रों के सूक्ष्माति सूक्ष्म अर्थ को समझने से आत्मा का साक्षात्कार होता है', तो यह भी सरासर मिथ्या है।
आत्मा का....कर्मों से मुक्त विशुद्ध आत्मा के दर्शन हेतु आवश्यक है केवलज्ञान की दृष्टि । अनुभव की दृष्टि । जब तक अपनी दृष्टि
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