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ज्ञानसार
कोई 'योगी' उनका आदर्श बन जाता है, फिर भले ही वे आनन्दधनजी हों अथवा उपाध्याय यशोविजयजी हों। उन जैसा अपने आप को ढालने के लिए वह शुभ/पवित्र उपायों का पालन करता है ।
३. संभव है, प्रारंभ के पुरुषार्थ में कुछ गलतियाँ/टियाँ रह जायें और अतिचार भी लग जायें। फिर भी सजग योगी के लक्ष्य से बाहर ये त्रुटियाँ अथवा अतिचार नहीं रहते। वह अतिचार टालने का हर संभव प्रयत्न करता है और अपनी भूलों को समय पर सुधार लेता है । वह ऐसा अप्रमत्त बन जाता है कि निरतिचार आचार-पालन करने लगता है । फलत: किसी अतिचार के लगने का उसे कोई भय नहीं रहता ।
४. ऐसे महान् धुरंधर योगी को अहिंसादि विशिष्ट गुण सिद्ध हो जाते हैं कि उसके सान्निध्य में रहने वाले अन्य जीव भी इन गुणों को सहज में प्राप्त कर लेते हैं। मानव की वैर-वृत्ति शान्त हो जाती है, पशुओं की हिंसक-वृत्ति शान्त हो जाती है।
सर्व प्रथम योग 'कथा-प्रीति' अनन्य महत्व रखता है। योगी की कथा-वार्ता का श्रवण करते हुए प्रीतिभाव पैदा होता है, वह प्रीति/ प्रेम स्वाभाविक होता है। ऐसे प्रीति-भावयुक्त मानव को स्थानादि योगों में प्रवृत्ति करना पसन्द होता है। अत: वह हमेशा योगी पुरुषों के सान्निध्य की खोज में रहता है और जब ऐसे योगीश्वर की भेट हो जाती है, तब उसके प्रानन्द की अवधि नहीं रहती।
लेकिन वर्तमान समय में प्राय: मुनि-वर्ग में स्थानादि योग के प्रति प्रवत्ति दृष्टिगोचर नहीं होती और प्रामतौर पर सबकी धारणा बन गयी है कि जैसे वह अन्य लोगों के लिये ही हैं । अलबत्त, शास्त्र-स्वाध्याय एवं तपश्चर्या की परंपरा कायम है, लेकिन उस में स्थानादि योगों का समावेश नहीं दिखता । अतः शास्त्र-स्वाध्याय और तपश्चर्यायें सविकल्प से निर्विकल्प में जोव को नहीं ले जा सकती। . हालांकि मोक्ष के साथ जोड़ने की क्षमता रखने वाले धर्म-योगों की आराधना निर्विकल्प अवस्था तक ले जा सकती है। लेकिन जिन विधि-विधानों और पद्धतियों से धर्मक्रिया संपन्न होनी चाहिए, उस तरीके से ही होनी चाहिये। ठीक उसी तरह उक्त धर्मक्रियाओं को उत्तरोत्तर विशुद्ध एवं अतिचाररहित बनाने की सावधानी होनी चाहिये।
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