________________
४२०
ज्ञान सार
अन्य सभी प्रयोजनों का परित्याग कर निष्ठापूर्वक धर्मानुष्ठान आराधना करे । साथ ही सर्वत्र उसके मन में धर्मानुष्ठान के प्रति प्रीति भाव बना रहे ।
भक्ति अनुष्ठान में भी इसी प्रकार का आदर, उत्कट प्रीति और अन्य प्रयोजनों का परित्याग होता है । अलबत्त, यहां एक विशेषता होती है कि जिस धर्मयोग की वह आराधना करता हो, उस का महत्व सदेव उसके मन पर अंकित होता है। मन-वचन-काया के योग विशेष विशुद्ध होते हैं ।
प्रीति और भक्ति के पात्र भिन्न होते हैं । जैसे पत्नी और माता । जिस तरह किसी युवक को पत्नी प्रिय होती है, ठीक उसी तरह परम हितकारिणी माता भी अत्यन्त प्रिय होती है । पालन-पोषण का कार्य दोनों का भी एक-सा ही होता है । लेकिन पुरुष पत्नी का कार्य प्रीतिवश करता है, जबकि माता का भक्तिभाव से । __ तृतीय अनुष्ठान है-वचनानुष्ठान । सभी धर्मानुष्ठान शास्त्रानुसार करते हुए औचित्यपूर्वक करें। चारित्रवान मुनिवर वचनानुष्ठान की प्राराधनाअवश्य करें। वे शास्त्राज्ञा का भूलकर भी उल्लंघन न करें। साथ ही औचित्य का पालन भी न भूलें। यदि बिना औचित्य के शास्त्रादेश का पालन किया जाए, तो अन्य जीवों की दृष्टि में शास्त्र घरणा के पात्र बन जाते हैं ।
चतुर्थ अनुष्ठान है- असंगानुष्ठान । जिस धर्मानुष्ठान का अभ्यास अच्छी तरह हो गया हो, वह सहज भाव से होता है, जैसे चन्दन से सौरभ स्वाभाविक रूप से फैलती है ।
वचनानुष्ठान और असंगानुष्ठान में एक भेद है । कुम्हार अपना पहिया डंडे से घमाता है, बाद में बिना डंडे के प्रालंबन के भी पहिया निरंतर घुमता रहता है । ठीक वैसे ही वचनानुष्ठान भी शास्त्राज्ञा से ही संभव है । लेकिन शास्त्र की अपेक्षा के बिना सिर्फ संस्कार मात्र से सहज भाव से प्रवृत्ति करे, वह असंगानुष्ठान कहलाता है ।
गृहस्थवर्ग में प्रीति और भक्ति-अनुष्ठान का प्राधान्य होना चाहिए । भले ही वह शास्त्राज्ञा से अनभिज्ञ हो, लेकिन इतना अवश्य ज्ञात कर ले कि, 'उक्त धर्ममार्ग तीर्थंकरों द्वारा आचरित और प्रदर्शित है । इस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org