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नियाग [यज्ञ
४२७ कल्पना तक कहीं छिपो नहीं होनी चाहिए ! यह कभी न भूलो कि समस्त सुखों के प्रति निःस्पृह-निरागी बन कर ही ज्ञानयज्ञ करना है |
क्या तुम्हें यह कहना है कि 'पापों का नाश करना, क्षय करना यह भी एक प्रकार की कामना ही है न?' अवश्य है, लेकिन उसमें निष्काम भावना का तत्त्व प्रखंड रहा हुआ है। अतः उक्त कामना तुम्हें पापाचरण की दिशा में कभो अग्रसर नहीं करेगी! नि:शंक, निश्चल और निर्भय बन कर पाप-क्षय के लिये ज्ञान यज्ञ प्रारम्भ करो।
इस धरती पर स्वर्ग, पुत्र-परिवार, धन-संपदा आदि क्षुद्र कामनाओं की पूर्ति हेतु किये जाने वाले यज्ञ की अग्नि में प्रात्मा उज्ज्वल नहीं बनती अपितु जल जाती है ? ऐहिक-पारलौकिक सुखेच्छाओं के वशीभूत मात्मा मलिन और पापी बनती है। भोगैश्वर्य की कुटिल कामना आत्मा को मूढ बनाने वाली है। ऐसी कामनाओं की पूर्तिहेतु यज्ञ मत करो। भोगैश्वर्य के तीव्र प्रवाह में प्रवाहित जीव घोर हिंसक यज्ञ करने के लिए तत्पर बनता है।
धू-धू-जलती आग की प्रचंड ज्वालाओं में निरीह पशुओं की बलि देकर (देवी-देवताओं को प्रसन्न करने की मिथ्या कल्पना से) मानव स्वर्गीय सुख की कामना करता है। क्योंकि 'भूतिकाम: पशुमालभेत' सदृश मिथ्या श्रुतियों का प्राधार जो उसे उपलब्ध हो जाता है ! यज्ञ करने वाला और कराने वाला प्रायः मांसाहार का सेवन करता है ! शराब के जाम गले में उंडेलता है....और मिथ्या शास्त्रों का पालम्बन ले, अपना बचाव करता हैं । परनारी-गमन को भी वे धर्म के ही एक पाचरण की मिथ्या संज्ञा देते हैं ! इस तरह महाविनाशकारी रौरव नरक में ले जाने वाले पापों का, यज्ञ के नाम पर आचरण करते हैं !
हमें ऐसे घृणित हिंसक यज्ञ का सरेआम प्रतिपादन करनेवाले मिथ्या शास्त्रों से सदा दूर रहना चाहिए। ज्ञान-यज्ञ में ही सदैव लोन रहना चाहिए। अपना जीव यज्ञ कुंड है। तप अग्नि है। मन-वचनकाया का पुरुषार्थ घृत डेलनेवाली कलछी है ! शरीर अग्नि को प्रदीप्त/प्रज्वलित करने का साधन है, जब कि कर्म लकडियाँ हैं ! संयमसाधना शांति-स्तोत्र है...'श्री उत्तराध्ययन' सूत्र के 'यज्ञीय-अध्ययन' में ज्ञान-यज्ञ का इस तरह वर्णन किया गया है !
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