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योग
४२१ के अनुसरण से ही सर्व सुखों की प्राप्ति होगी। पाप-क्रियाओं में रातदिन अठखेलियाँ करते अनन्त भव भटकते रहे, चार गति की नारकीय यातनाएँ और असह्य दुःख सहते रहे । अब मुझे पापक्रिया से कोसों दूर रहना है, उस के भंवर में फंसना नहीं है, बल्कि हितकारी क्रियायें करते हुए अपने जीवन को सफल बनाना है।
प्रीति-भक्ति के भाव से प्राराधित धर्मानुष्ठान तो ऐसा अपूर्व पुण्यानुबन्धी पुण्य उपार्जन कराता है कि एक नौकर, राजा कुमारपाल बन सकता है । उसने पाँच कोडी के पुष्पों से जो अनन्य अद्भुत जिनपूजा का अनुष्ठान किया वही तो वास्तविक प्रीति-अनुष्ठान था ! उस अनुष्ठान से ही तो उसका अभ्युदय संभव हुआ । 'प्रभ्युदयफले चाद्य, निःश्रेयससाधने तथा चरमे ।'
-षोडशके पहले दो अनुष्ठान अभ्युदयसाधक हैं, जबकि अन्त के दो निःश्रेयस के साधक हैं ।
स्थानाधयोगिनस्तीर्थोच्छेदाद्यालम्बनादपि ।
सत्रदाने महादोष इत्याचार्या: प्रचक्षते ॥८॥२१६॥ अर्थ :- आचार्यों का कहना है कि स्थानादि योगरहित को 'तीर्थ का - उच्छेद हो' आदि मालंबन से भी चैत्यवंदनादि सूत्र सिखाने/पढाने
में महादोष है । विवेचन :- किसी भी वस्तु के आदान-प्रदान में योग्यता-अयोग्यता का विचार करना अत्यन्त आवश्यक है। लेने वाले और देने वाले की योग्यता पर ही लेन-देन के व्यवहार की शुद्धि रह सकती है । * दाता योग्य हो, लेकिन लेने वाला अयोग्य हो; * दाता अयोग्य हो, लेकिन ग्रहणकर्ता योग्य हो, * दाता और ग्राहक दोनों अयोग्य हों ।
उपरोक्त तीनों प्रकार अशुद्ध हैं और अनुपयुक्त भी। * दाता और ग्राहक दोनों योग्य हों-यह प्रकार शुद्ध है । . सामायिक सूत्र, चैत्यवन्दन सूत्र, प्रतिक्रमण सूत्रादि सिखाने की
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