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योग
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तत्पश्चात उसे रूपी-मूर्त प्रालंबन की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। सूक्ष्म में प्रवेश करने पर स्थूल की अपेक्षा नहीं रहती । सूक्ष्म आत्मगुणों का तादात्म्यसाधक योगी 'योग-निरोध' के सन्निकट पहुँच जाते हैं । 'योग निरोध' स्वरूप सर्वोत्तम योग का पूर्वभावी ऐसा यह अनालंबन योग है । अर्थात् तेरहवे गुणस्थान पर योग-निरोध होता है । उस का पूर्ववती अनालंबन योग १ से ७ गुणस्थानोंमें संभव नहीं है । अर्थात् अपने जैसे साधक (१ से ७ गुणस्थानों में) जीवों के लिये तो प्रारंभ के चार योग ही आराधनीय हैं। फिर भी अनालंबन योग का स्वरूप जानना और समझना आवश्यक है, जिससे हमारा आदर्श, ध्येय और उद्देश्य स्पष्ट हो जाए।
यह अनालंबन योग 'धारावाही प्रशान्तवाहिता' भी कहलाता है । - प्रीति-भक्ति-वमोऽसंगैः स्थानाधपि चतुविधम् ।
तस्मादयोगयोगाप्तेर्मोक्षयोग: क्रमाद भवेत् ॥७॥२१५॥ अर्थ :- प्रीति, भक्ति, वनन एवं असंग अनुष्ठान द्वारा स्थानादि योग भी
चार प्रकार के हैं । अतः योग के निरोध स्वरुप योग की प्राप्ति
होने से क्रमशः मोक्षयोग प्राप्त होता है } विवेचन :- ५ योग (स्थान, वर्ण, अर्थ, पालंबन, प्रनालंबन)
x ४ योग (इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता, सिद्धि)
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२०
x ४
(प्रीति, भक्ति, वचन, प्रसंग।
यह है योग के भेद-प्रभेदों का गणित । इस प्रकार योग का आराधक योगी अयोगी बनता है, "शैलेशी" प्राप्त कर मोक्षगामी बनवा
है।
चैत्यवन्दनादि धर्मयोग के प्रति परम आदर होना चाहिये । भावशून्य हृदय से आराधित धर्मयोग प्रात्मा की प्रगति नहीं कर सकता, ना ही उसे प्रीति-अनुष्ठान में कोई स्थान मिलता है । अनुष्ठान में ऐसी प्रीति हो कि अनुष्ठान कर्ता के हित का उदय हो जाय । संसार के
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