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ज्ञानसार
शान्ति और आनन्द-प्राप्ति की कामना का परित्याग कर, अपने प्रान्तर विश्व में झांकता है और तब उसे वहाँ अथाह सुख, परम शान्ति और असीम आनन्द के मुक्ता-मणि, हीरा-मोती अत्र-तत्र बिखरे दृष्टिगोचर होते हैं।
वह प्रान्तर-सष्टि में प्रवेश करने का दृढ़ संकल्प करता है । उसके लिये वह सर्वज्ञ के शास्त्र-कोष से मार्गदर्शन खोजता है। मार्गदर्शन प्राप्त होते ही उसका दिल बाग-बाग हो उठता है, हृदय गद् गद् हो उठता है। उसके नयन से हर्षाश्रु उमड़ आते हैं । फलत: वह स्थान, वर्ण, अर्थ और प्रालंबन-इन चार योगों की अनन्य पाराधना प्रारंभ कर देता है।
सर्व प्रथम प्रासन-मुद्राओं का अभ्यास करता है। सुखासन, पद्मासन, सिद्धासनादि प्रासन सिद्ध कर, प्रदीर्घ समय तक एक आसन पर ध्यानस्थ बैठ, अपने शरीर को नियंत्रित करता है। योग मुद्रा के सहयोग से मुद्रायें सिद्ध कर शरीर को स्वाधीन बनाता है। उस के लिये आवश्यक आहार-विहार और नीहार का चुस्ती के साथ पालन करता है। प्रमाद.... प्रशक्ति से अपने शरीर को सुरक्षित रख 'स्थानयोग' के लिये सुयोग बनाता है।
तत्पश्चात अपनी दिनचर्या से जड़ी धार्मिक क्रियायें- चैत्यवन्दन, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन वगैरह क्रिया में बोले जाते सूत्रों का अध्ययन इस तरह करता है कि जिसका उच्चारण करने वाला और सुनने वाला, दोनों तन्मय हो जायें। उस के सशक्त और सूरीले गले से फूटी स्वरलहरियाँ बाह्य कोलाहल, शोर गुल को खदेड़ देती हैं। इस स्वरव्यंजना के नियमों का कठोर पालन करने वाला योगी 'वणंयोग' को भी सिद्ध कर देता है।
उपर्युक्त पद्धति से तन-वचन पर असाधारण काबू पा मन को नियंत्रित करने की क्रिया (आराधना) में लग जाता है। उस के लिये वह आवश्यक क्रियाओं के सूत्रों का अर्थज्ञान प्राप्त करता है । अर्थज्ञान में से एकाध मनोहर कल्पना-सृष्टि का सर्जन करता है और सूत्रोच्चारण के साथ-साथ उक्त कल्पना-सृष्टि का 'रील' भी शुरू कर देता है। वह जो उच्चारण करता है, उस के प्रतिध्वनि का श्रवण
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