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योग
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मोक्षण योजनाद योगः सोऽप्याचार इष्यते ।
विशिष्य स्थानवालम्बनकार यगोचरः ॥१॥२०॥ अर्थ :- मोक्ष के साथ प्रात्मा को जोड देने से समस्त आचार योग कहलाता
है, विशेष रूप से स्थान (आसनादि) वर्ण (अक्षर) अर्थज्ञान,
बालंबन और एकाग्रता विषयक है । विवेचन :- भोग और योग !
भोग पर से दृष्टि हटे, तो योग पर दृष्टि जमे । जब तक भोग के भूत-पलित जीव के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं, उस पर अपना जबरदस्त वर्चस्व जमाये बैठे हैं, तब तक योग-मार्ग दृष्टिगत होगा ही नहीं। सामान्यतः विषयभोगी योगमार्ग को दुःखपूर्ण महसूस करता है ।
अलबत्त, वैषयिक सुखों से सर्वथा विरक्त बना, शास्त्रदृष्टियुक्त साधक, उसमें से भी ऐसा मार्ग खोज निकालता है कि जिस पर विचरण करते हुए सरलता से परम सुख प्राप्त कर सके । मार्ग में आने वाली मुश्किलियाँ और कठिनाईयाँ व भय उसके मन तुच्छ होते हैं । उसके मन में निरन्तर उमड़ रहा सत्वभाव विध्नों को कुचल कर प्रगति के पथ पर अग्रसर करता है ।
मोक्ष और संसार को जोड़ने वाला मार्ग है- योगमार्ग । 'मोक्षण योजनाद् योगः' मोक्ष के साथ आत्मा का जो सम्बन्ध कराता है, उसे योग कहते हैं । जिस मार्ग का अवलंबन कर आत्मा मोक्ष-मॅजिल पर पहुँच जाए, वह योग-मार्ग कहलाता है ।
'योगविंशिका' ग्रंथ में आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने कहा है'मुक्खेण जोयणाओ 'जोगो सम्वो वि धम्मवावारो ।'
'मोक्ष के साथ जोड़ने वाला होने के कारण समस्त धर्म-व्यापार योग है।' मोक्ष के कारणभूत जीव का पुरूषार्थ यानी योग। लेकिन यहाँ विशेष रुप से पांच प्रकार के योग का वर्णन किया गया है :
* (१)स्थान, (२) वर्ण, (३) अर्थ, (४) आलंबन, (५)एकाग्रता। (१) सकल शास्त्र-प्रसिद्ध कायोत्सर्ग, पर्यकबन्ध, पद्मासन आदि आसन, यह स्थान-योग है। * देखिए परिशिष्ट में 'समाधि'
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