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ज्ञानसार
आमतौर पर यह शिकायत सुनने में आती है कि 'धर्म-क्रियाओं में हमें प्रानन्द नहीं आता ।' लेकिन प्रश्न तो यह है कि प्रानन्दप्राप्ति के लिये भला कौन धार्मिक-क्रियायें करता है ? अलबत्त, धर्म-क्रियायें असीम आनन्द की केन्द्रबिन्दु बन सकती हैं, अगर उनमें से आनन्दप्राप्ति की आन्तरिक तमन्ना हमारे में हो । सिनेमा, नाटक, सर्कस आदि में खोकर आनन्द लटने की प्रवृति जब तक प्रबल है, तब तक धर्मक्रियायें निष्प्रयोजन ही प्रतीत होंगी । अरे भाई, भोगी भी क्या कभी योग को पसन्द करता है ? भोग में नीरसता पाए बिना योग में सरसता कहाँ से आयेगी ? योगक्रियाओं में जुड़े हुए भोगी का मन जब भोग की भूलभूलैया में उलझ जाता है, तब वह यौगिक क्रियाओं में दोष देखता है।
'आलम्बन' के माध्यम से योगी अपने मन को स्थिर रखता है । परमात्मा की प्रतिमा उसका सर्वश्रेष्ठ आलंबन है । पद्मासनस्थ मध्यस्थ भावधारक प्रतिमा, योगी के मन को स्थिर रखती है । योगी के लिए जिनप्रतिमा प्रेरणा-स्रोत बनी रहती है। उस की आँखें बन्द होने के उपरांत भी उसका मन निरन्तर उक्त प्रतिमा के दर्शन करता रहता है । उस की जिहवा शान्त होने पर भी मन ही मन वह परमात्मस्तुति में लीन रहता है । मतलब यह कि, परमात्मदशा के प्रेमी जीव के लिए प्रतिमा, स्नेहसंवनन करने का श्रेष्ठ साधन सिद्ध होती है।
जिसके लिए मानव-मन में राग-अनुराग, स्नेह और प्रीति हो, उसके विरहकाल में उसकी प्रतिकृति/छबि, उसकी मूर्ति का क्या महत्त्व है- यह उसे पूछे बिना पता नहीं लगेगा । उक्त छबि/प्रतिकृति के माध्यम से परमात्मप्रेमी उसकी निकटता का एहसास करता है । फलतः उसकी स्मृति तरोताजा रखता है और उसके स्वरूप का यथेष्ट ख्याल रखता है। साथ ही जब उक्त आलंबन द्वारा उसके प्रेम की उत्कटता प्रकट होती है, तब वह (प्रेमी) पांचवें योग में पहुँच जाता
'रहित' योग में किसी विकल्प, विचार अथवा कल्पना के लिये स्थान नहीं । वह पूर्णरूप से एकाकार बन जाता है, तब भला, विचार किस बात का करना ?
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