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ज्ञानसार
से वास्तविकता में पदार्पण करते ही पुनः नारी, धन-संपत्ति, भोजन, परिवारादि के प्रति मोहजन्य वृत्तियाँ दुगुने वेग से उमड़ आती हैं । लेकिन अनुभवदशा में ऐसी स्थिति कभी नहीं बनती। अनुभवदशा में तो दिन-रात...निर्जन जंगल या नगर-परिसर में हर कहीं सदा-सर्वदा एक ही अवस्था....! मोहशून्य अवस्था ! वहाँ होता है केवल वास्तविक प्रात्मदर्शन का अपूर्व प्रानन्द और एक-सी आत्मानुभूति !
शून्यावस्था में आत्म-साक्षात्कार की डिंगे हाँकनेवाले जब शून्यता के समुद्र में गोता लगा कर बाहर निकलते हैं, तब उन का मन संसार के शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श का भोगोपभोग करने के लिए, प्रानन्द लटने के लिए कितने आतुर, अधीर एवं प्राकुल-व्याकल होते हैं-इस का बीभत्स दृश्य तुम्हें 'माधुनिक भगवानों' के आश्रमों में दृष्टिगोचर होगा। तनिक वहाँ जाकर देखो? भोग-विलास और कामवासना-प्रचुर उस जघन्य विश्व में 'आत्मानुभूति' की खोज में निकल पडे उन बुद्धिशाली, दिग्गज पंडितों को धन्यवाद दें या उनका धिक्कार करें ?
कभी-कभार उक्त प्राध्यापक (भगवान? ) महोदय प्राकृतिक...नैसर्गिक कल्पनासष्टि का सजन, अपनी अनूठी प्रभावशाली साहित्यिक भाषा में करते हैं और उक्त कल्पना के माध्यम से प्रात्मदर्शन....यात्मानुभूति कराने का आडम्बर रचाते हैं ! क्या विचार शून्यता प्रात्मानुभूति ? क्या नैसिर्गिक मानसिक कल्पनाचित्र मतलब आत्मानुभूति ? तब तो विचारशून्य एकेन्द्रिय जीवों को प्रात्म-साक्षात्कार हआ समझना चाहिए और सदा-सर्वदा निसर्ग की गोद में किल्लोल केलि करते पशु-पक्षियों को प्रात्मानुभूति के फिरस्ते समझने चाहिए !
तात्पर्य यह है कि आत्मानुभव सुषुप्तावस्था, स्वप्नावस्था और जागृतावस्था नहीं है, बल्कि इस से बिल्कुल भिन्न कोई चौथी दशा है । जिस की प्राप्ति हेतु हमें सही दिशा में पुरूषार्थ करना चाहिए।
अधिगत्याखिलं शब्द-ब्रह्म शास्दशा मुनिः।
स्वसंवेद्यं परं ब्रह्मानुभवेनाधिगच्छति ॥८॥२०८।। अर्थ : मुनि शास्त्र-दृष्टि से समस्त शब्दब्रह्म को अवगत कर, स्वानुभव से
स्वयं प्रकाश ऐसे परब्रह्म....परमात्मा को जानता है ।
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