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ज्ञानसार
परिग्रह के पापवश सर्वविरति-जोवन तहस-नहस हो गया था और सर्वविरति के वेश में तुम्हें प्रासक्ति ने अजीब उलझन में डाल दिया था।
परिग्रह के पाप से ही तो साधु महाव्रतों का उल्लंघन करने के लिए प्रेरित होता है । परिग्रह का ममत्व ही उसे क्रोधादि कषाय और रस-ऋद्धि-शाता गारव का सेवन करने हेतु धक्का मारता है । जहाँ परिग्रह का परित्याग किया नहीं कि क्रोधादि कषाय उपशांत होते विलंब नहीं लगता । गारव के प्रति घणाभाव पैदा होगा...। महाव्रतों के पालन में अडिगता और स्थिरता आएगी।
जबकि तुम धन-संपत्ति और परिवार का त्याग कर श्रमण बने हो तो अब साधु-जोवन में पैदा किए हुए परिग्रह का परित्याग करने में हिचकिचाहट क्यों ? अगाध जल-राशि तैर कर, किनारे लगते समय भला, डूबने की तैयारी क्यों कर रहे हो ? इसीलिए तो बार-बार आग्रह कर रहा हूँ कि परिग्रह के तट को तोड दो । पाप-जल बह जाएगा और तुम निर्मल, निर्मम बन जानोगे ।
त्यक्तपुत्रकलत्रस्य, मूर्खामुक्तस्य योगिनः ।
चिन्मात्रप्रतिबद्धस्य, का पुद्गल-नियंत्रणा ? ॥६॥१६८।। अर्थ : जिसने पुत्र और पत्नी को त्याग दिया है और जो ममत्व रहित है और
ज्ञान मात्र में ही प्रासक्त है, ऐसे योगी को पुद्गल का बन्धन कैसा? विवेचन : अलख के गीत गाता....भौतिक सुखों से सर्वथा लापरवाह योगी भला, कभी किसी का बन्धन स्वीकार करता है ? वह तो निबंधन निमुक्त हो सदा-सर्वदा आत्मज्ञान की संगति में तल्लीन होता है ।
जोगी ! तेरे जोग को संभाल ! जोग पर भोग की शैवाल तो जम नहीं गया है न ?जोग पर भोग के भूतों का प्रभाव तो कहीं नहीं छा गया है न ? वर्ना तेरा त्याग व्यर्थ जाएगा । तुमने नारी-सुख को तज दिया.... यहाँ तक कि तुमने मुलायम मखमली गद्दे और तकियों का सुख भी त्याग दिया ! अरे भला, अब तेरे लिए 'यह मेरा' जैसा क्या रह गया है ? तूने ममत्व के बन्धन तोड दिए । अब तुझ पर किसी जड-चेतन पदार्थ का आधिपत्य संभव नहीं ।
जोगी तुम्हारी चेतना जागृत हो उठी है । तुमने परिग्रह की
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