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ज्ञानसार
जीर्ण-शीर्ण गुदडी और दुर्गंधित चोला । हाथ में एक-दो पैसे ! क्या इसे तुम 'परिग्रह' कह सकोगे और उसे परिग्रही ? या फिर अपरिग्रही महात्मा कहोगे या पहुँचे हुए साधु-संत ? नहीं, हर्गिज नहीं।
क्यों ?
क्योंकि उन्हें तो 'जगदेव परिग्रह' है । उनकी प्राकांक्षाओं का क्षेत्र होता है, निखिल विश्व । सारो दुनिया ही उनका परिग्रह है। चराचर सष्टि में विद्यमान समस्त संपत्ति के प्रति उनमें गहरा ममत्व भरा पड़ा होता है।
तुम्हारे पास क्या है और क्या नहीं, उस पर परिग्रह अपरिग्रह का निर्णय न करो। तुम क्या चाहते हो और क्या नहीं-उस पर परिग्रहअपरिग्रह का निर्णय न करो। हाँ, तुम अपनी तपश्चर्या, दान और चारित्र-पालन से क्या चाहते हो? यदि तुम स्वर्गलोक का इन्द्रासन या फिर मृत्युलोक का चक्रवर्ती-पद चाहते हो, देवांगनाओं के साथ आमोद-प्रमोद अथवा मृत्युलोक की वारांगनाओं का स्नेहालिंगन चाहते हो, तब तुम अपरिग्रही कैसे ?
सहस्त्रावधि लावण्यमयी नारी-समुदाय के मध्य आसनस्थ , वैभव के शिखर पर आरूढ़, मणि-मुक्ता खचित सिंहासन...रत्न जडित स्तंभों से युक्त भव्य महल, बहुमूल्य वस्त्राभूषण.... आदि से घिरा हुआ होने के उपरान्त भी जिसका अन्त:करण 'नाहं पुदगलभावानांकर्ता कारयिता ऽपि च' इस भाव से आकंठ भरा हुआ है, जो त्याग और तपश्चर्या के लिये अधिर, आकुल-व्याकुल हैं और चार गति के सुखों से सर्वथा निर्लेप हैं, जिस को दृष्टि में कंचन, कथीर समान है, सोना-चांदी-मिट्टी समान है और जिसे शिव, अचल, अरुज, अनंत, अक्षय, अव्याबाध मोक्ष के बिना अन्य किसी चीज को लालसा नहीं-क्या उसे भी तुम परिग्रही कहोगे ? जिसे किसी प्रकार की मूर्छा/प्रासक्ति नहीं, वह परिग्रही नहीं है। ठीक वैसे ही जो अनंत तृष्णा से आकुल-व्याकुल है, वह अपरिग्रही नहीं । अतः बुद्धि पर जमी मूर्छा की परतों को उखाडकर 'आपरेशन' करवाकर बुद्धि को मूर्छा-मुक्त करोगे, तभी पूर्णता का पंथ प्रशस्त होगा। तुम्हारा अन्तःकरण पूर्णानन्द से छलक उठेगा !
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