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अनुभव
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कह सकते हैं ! अर्थात वहाँ मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न चमत्कार नहीं होता ! बुद्धि-मति की कल्पनासृष्टि नहीं होती, और शास्त्रज्ञान के अध्ययन....चिंतन....मनन से पैदा हुए रहस्यों का अवबोध नहीं होता । 'मेरी बुद्धि में यह आता है, अथवा अमूक शास्त्र में यों कहा गया है,' या 'मुझे तो अमुक शास्त्र का यह रहस्य समझ में आता है,' आदि सारी बातें 'अनुभव' से विलकुल परे हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि अनुभव तर्क से कई गुना उच्च स्तर पर है । अनुभव शास्त्रों के ज्ञान तले दबा हुआ नहीं है और ना ही बुद्धि अथवा शास्त्र से समझ में आये ऐसा है ।
सावधान, किसी को अनुभव की बात ताकिक ढंग से समझाने का प्रयत्न न करना । हमेशा समझने और समझाने के लिए बुद्धि-मति, ज्ञान और तर्क....की आवश्यकता रहती है, जबकि 'अनुभव' दूसरो को समझाने की बात नहीं है ।
'यथार्थवस्तुस्वरुपोपलब्धिपरभावारमतवास्वादकत्वमनुभव: ।'
भगवान् हरिभद्रसूरीश्वरजी ने अनुभव के वास्तविक स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहा है :
(1) यथार्थ वस्तु स्वरुप का ज्ञान, (1) पर-भाव में अरमणता, (।) स्वरुपरमण में तन्मयता ।
सारे जगत के पदार्थ जिस स्वरुप में हैं, उसी स्वरूप में ज्ञान होता है.... ज्ञान में राग-द्वेष का मिश्रण नहीं होता ! आत्मा से भिन्न, अन्य पदार्थों में रमणता नहीं होती ! योगी को तो प्रात्म-स्वरूप की ही रमणता होती है । उस का देह इस दुनिया की स्थूल भूमिका पर होता है और उसकी प्रात्मा दुनिया से परे सूक्ष्मातिसूक्ष्म भूमिका पर पारुढ होती है ।
__अनुभवी आत्मा की स्थिति का गम्भीर शब्दों में किया गया यह संक्षिप्त लेकिन वास्तविक वर्णन है । हम स्वरुप में रमणता इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि परभाव की स्मणता में सिर से पाँव तक सराबोर हो गये हैं । और परभाव की रमरणता यथार्थ वस्तु-स्वरुप के
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