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ज्ञानसार
अन्य कोई मार्ग नहीं। इसके लिए गिरिकन्दरा अथवा पाश्रम-मठों में भटकने की आवश्यकता नहीं है। बल्कि आवश्यकता है अंतरंग साधना की, शास्त्रार्थ और वितंडावाद-वादविवाद से उपर उठने की और शंका-कुशंका तथा तर्क-कुतर्क के भँवर से बहार निकलने की।
साथ ही, आत्मानुभव करने के लिए आत्मानुभवियों के सतत संपर्क और संसर्ग में रहने की जरूरत है। आसपास की दुनिया ही बदल जानी चाहिए। सारी प्राशा-आकांक्षाएँ, कामनाएँ और अभिलाषाओं को जमीन में गाड देना चाहिए ! इस तरह किया गया आत्मानुभव निःसंदेह भवसागर से पार लगाता है !
हाँ, प्रात्मानुभव का ढोंग करने से बात नहीं बनेगी ! प्रतिदिन विषय-कषाय और प्रमाद में लिप्त मानव, एक-आध घंटे के लिए एकांत स्थान में बैठ, विचारशन्य बन और 'सोऽहं' का जाप जप, यह मान लें कि उसे आत्मानुभव हो गया है, तो वह निरी आत्म-वंचना है। जबकि आत्मानुभवी का समग्र जीवन ही परिवर्तित हो जाता है, उस में मामूलाग्र परिवर्तन पा जाता है । उसके लिए विषय, विष का प्याला और कषाय फणिधर की प्रतिकृति प्रतीत होते हैं। प्रमाद उस से कोसों दूर भागेगा । आहार-विहार में वह सामान्य मनुष्य से बहुत उंचा उठा होता है। साथ ही, आत्मा की अनुभूति का उसे ऐसा तो असीम अानन्द होगा, जिस की तुलना में दूसरे आनन्द तुच्छ लगेंगे । परमात्मस्वरुप की प्राप्ति के लिये आत्मानुभव के बिना अन्य सब प्रयत्न व्यर्थ
ज्ञायेरन हेतवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रियाः ।
कालेनैतावता प्राज्ञैः कृतः स्यात् तेषु निश्चयः ॥४॥२०४।। अर्थ : यदि युक्ति से इन्द्रियों को अगोचर पदार्थों का रहस्य ज्ञान हो सकता
तो पंडितो ने इतने समय में अतीन्द्रिय पदार्थों के सम्बंध में निर्णय
कर लिया होता। विवेचन: विश्व में दो प्रकार के तत्त्व विद्यमान हैं :
-इंद्रियों से अगोचर-इंद्रियातीत और --इंद्रिय गोचर, इन्द्रिय गम्य ।
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