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ज्ञानसार
जाएगी। आत्म-परिणति की मोठी सौरभ वातावरण को सुरभित कर देगी। तभी यथार्थ वस्तु-स्वरुप के अवबोधपरका 'अनुभव'-शिखर तुम सर कर लोगे।
लेकिन 'अनुभव' शिखर के आरोहण का प्रशिक्षण लिये बिना ही यदि भावना से प्रेरित होकर प्रयत्न किये तो नि:संदेह अगमनिगम की किसी पहाडी की गहरी खाई में पटक दिये जानोगे और तब लाख खोजने के बावजूद भी तुम्हारा अता-पता नहीं मिलेगा! अतः प्रशिक्षित होना अनिवार्य है। अध्ययन करना आवश्यक है। बाद में 'अनुभव'शिखर पर आरोहण करो, सफलता तुम्हारा पाँव छुएगी।
बोलो, इच्छा हैं ?
अरे भाई, केवल तुम्हारी इच्छा से ही नहीं चलेगा ! इसके लिए आवश्यकता है दृढ संकल्प की, निर्धार-शक्ति की। साधना के मार्ग पर कठोर निर्णय के बिना नहीं चलता। विध्नों को पाँव तले रौंदने हेतु दाँत पीस निरंतर आगे बढो.. ! आभ्यंतर विघ्नों की श्रृंखलाओं को तोड दो..! उस की कमर ही तोड दो कि दुबारा अपनी टाँग अडा कर निर्धारित कार्यक्रम में विधन नहीं करें। इतनी निर्भयता, दृढता और खुमारी के बिना अनुभव का शिखर सर करने की कल्पना करना निरी मूर्खता है।
अतीन्द्रियं परं ब्रह्म विशुद्धानुभवं विना!
शास्त्रयुक्तिशतेनापि न गम्यं यद् बुधा जगुः ॥३॥२०३।। अर्थ : पंडितों का कहना है कि इन्द्रियों से अगोचर परमात्म-स्वरुप विशुद्ध
अनुभव के बिना समझना असंभव है, फिर भले ही उसे समझने के
लिए तुम शास्त्र की सैकडों युक्तियों का प्रयोग करो। विवेचन : शुद्ध ब्रह्म !
विशुद्ध आत्मा ! इन्द्रियों की इतनी शक्ति नहीं कि वे शुद्ध ब्रह्म को समझ सकें । किसी प्रकार के आवरण-रहित विशुद्ध आत्मा का अनुभव करने की क्षमता बेचारी इन्द्रियों में कहाँ संभव है ? अर्थात् कान शुद्ध ब्रह्म की ध्वनि सुन न सके, आँखें उसके दिव्य रुप को देख न सकें, नाक उसकी
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