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परिग्रह त्याग
स्वीकार करने में लोन हो, परिग्रह के तट पर प्रायः तुम्हारा दरबार लगता है और खुशामदखोर तथा चापलुसों के बीच बैठे तुम अपने आपको महान समझते हो । लेकिन याद रखना, तट पर से फिसल गये तो फिर अगाध पान-पंक में समाधि लेनी होगी.... और ऐसे समय उपस्थित खुशामदखोरों में से एक भी तुम्हें बचाने के लिये पाप-पंक से भरे सरोवर में छलांग नहीं लगाएगा ।
परिग्रह के तट पर धुनी रमाकर बैठे तुम वहाँ के शाश्वत् 'नियमों को जानते हो ? तट पर बैठा यदि तट तोडने का कार्य न करे, तो उसका अगाध पाप-पंक में डूबना निश्चित है ... । भले ही फिर तुम त्यागीवेश में हो, तुम्हारा उपदेश वैराग्य - प्रेरक हो, तुम्हारी क्रियायें जिनमार्ग की हो, लाखों भक्त तुम्हारी जय जयकार करते हों, तुम आँखें मुँद, पद्मासन लगाये ध्यानस्थ हो अथवा घोर तपश्चर्या करते हो । ये सारी क्रिया-प्रक्रियायें किसी काम की नहीं, जब तक तुम परिग्रह के तट पर बैठे हुए हो। क्योंकि अन्त में तो तुम्हें तट पर से लुढक कर गाव पाप - जलराशि में डूबकर मरना ही है ।
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परिग्रह के तट पर धूनी रमाकर तुम विश्व को अपरिग्रह का उपदेश देते हो, यह कहाँ तक उचित है ? बजाय इसके तट को तोड़ दो.... । न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी ! पाप की जलराशि को बह जाने दो.... | क्या तुम्हें उस पानी की दुर्गंध नहीं आती ? खैर, आदत जो पड़ गयी है ! लेकिन ऐसे स्थान पर बैठकर साधुता को क्यों लजा रहे हो ? उसकी तनिक शान ओर आन तो रहने दो । तभी कहता हूँ भाई, उठाओ कुदाल और फावड़ा । देर न करो, तुरन्त परिग्रह के तट को तोड़ दो ।
जब तट टूट जाएगा, पाप का जल बहते देर नहीं लगेगी और तब निर्मल आत्म-सरोवर के किनारे खड़े कोई नई अभिनव अनुभूति का अनुभव करोगे । तुम्हें महसूस होगा कि अब तक परिग्रह में संयम का अमृत सोख गया था और अन्तःकरण की केसर - सुरभित महाव्रतों की वाटिका को किसी ने विरान बना दिया था । दृष्टि पर अन्धकार की परत किसी ने जमा दी थी । साधना-आराधना का सुहावना उद्यान उजड़ गया था और प्रांगण में कंटीली झाड़ियाँ ही पनप आयी थीं ।
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