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ज्ञानसार
जन्म-मरण के चक्र में फंसी चक्कर काट रही है। यह सब अन्तरग परिग्रह की लीला है।
बाह्य परिग्रह का त्याग करते हए यदि प्राभ्यन्तर परिग्रह की एकाध गाँठ भी रह जाए, तो संसार-परिभ्रमण के अतिरिक्त दूसरा कोई चारा नहीं है । उपाध्यायजी महाराज ने फरमाया है कि, "यदि तुम्हारा मन अन्तरंग परिग्रह से आकुल-व्याकुल है, तो बाह्य मुनिवेश व्यर्थ है, वह कोई कीमत नहीं रखता। ऐसा कहकर वे मुनिवेश का त्याग करने को नहीं कहते, परन्तु अन्तरंग परिग्रह के परित्याग की भव्य प्रेरणा देते हैं।
त्यक्ते परिग्रहे साधोः, प्रयाति सकलं रजः ।
पालित्यागे क्षणादेव, सरसः सलिलं यथा ॥५॥१६७।। अर्थ : परिग्रह का त्याग करते ही साधु के सारे पाप क्षय हो जाते हैं।
जिस तरह पाल टूटते ही तालाब का सारा पानी बह जाता है। विवेचन :-पानी से भरे सरोवर को खाली कर देना है ? उसके किनारे को तोड़ दो। सरोवर खाली होते विलंब नहीं लगेगा। यह भी कोई बात हुई कि तट तोडना नहीं और सरोवर खाली हो जाए ? तब तो असंभव है।
तुम्हारी मनीषा आत्म-सरोवर को पाप-जल से खाली करने की है न ?तब परिग्रह के तट को तोड दो....और तोड़ना ही पडेगा। इसके सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं है। मानता हूँ कि उक्त तट को बाँधने में तैयार करने में तुमने दिन-रात पसीना बहाया है, कठोर परिश्रम किया है। संयम और स्वाध्याय को ताक पर रखकर तुमने अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया है। मुनि-धर्म की मर्यादानों का उल्लंघन कर तट को सुशोभित....सुन्दर किया है। लेकिन मेरी मानो और तट को तोड दो। इसके बिना आत्म-सरोवर में रहा पाप-पानी बाहर नहीं जाएगा।
यह भी भली भाँति जानता हूँ कि परिग्रह के तट पर बैठ-कर तुम्हें नारी कथा, भोजन कथा, देश कथा और राजकथा बतियाने में अपूर्व आनन्द मिलता है । भोले-भाले अज्ञानी जीवों से मान-सम्मान
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