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परिग्रह - त्याग
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आवश्यकता है, ठीक उसी तरह आत्मा के सूक्ष्म जगत में ज्ञान - दीप के प्रकाश को आवश्यकता होती है । लेकिन निद्रा में जोव ज्ञानप्रकाश पसंद नहीं करता । जे हो माह निद्रा में जीव ज्ञान प्रकाश नहीं चाहता... अज्ञानांधकार में हो मोह रुपो गहरी नींद आती है ।
यदि दीपक स्थिर है, तो प्रकाश फैला सकता है । बशर्ते कि वह घी - तेल पूरित होना चाहिये और वायु रहित स्थान पर रखा गया हो । ज्ञानदीपक के लिए भी ये शर्ते अनिवार्य हैं ।
• ज्ञान - दीपक का घी तेल है-सुयोग्य भोजन ।
७ ज्ञान - दापक का निरापद स्थान है-धर्म के उपकरण | ज्ञानोपासना निरन्तर चलती रहे और धर्मध्यान तथा धर्म-चिन्तन निराबाध गति से होता रहे, इसके लिये तुम श्वेत और जीर्ण-शीर्ण वस्त्र धारण करते रहो, यह परिग्रह नहीं है । सतत स्वाध्याय का मधुर - गुंजन होता रहे, इसके लिये तुम वस्त्र - पात्र ग्रहण करो, यह ग्रह नहीं है । हाँ, वस्त्र - पात्र ग्रहण करने की ग्रानी शर्तें हैं :
- नि:स्पृह वृत्ति से ग्रहण करना,
-ज्ञान- दीपक को प्रज्वलित रखना ।
भले हो दिगंबर संप्रदाय की यह मान्यता हो कि, "तुम परिग्रही हो... ज्ञान मात्र की परिगति वाले श्रमरण - समुदाय को वस्त्र धारण नहीं करने चाहिये और ना ही अपने पास पात्र रखने चाहिए ।" यह कहते हुए उनका तर्क है कि, " वस्त्र - पात्र का ग्रहण-धारण मूर्च्छा के बिना नहीं हो सकता । मूर्च्छा परिग्रह है ।
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सिर्फ उनको मान्यता के कारण हम परिग्रही नहीं बन जाते, या वे अपरिग्रहो नहीं हो जाते । यदि वस्त्र - पात्र के धारण करने मात्र से हो मूर्द्धा का उद्गम होता हो तो भाजन ग्रहण करने में मूर्च्छा क्यों नहीं ? क्या भोजन राग-द्वेष का निमित्त नहीं ? क्या कमंडल मोरपंख ग्रहण करने और सतत अपने पास रखने में परिग्रह नहीं ? अरे, शरीर ही एक परिग्रह जो ठहरा ....! दिगबर मुनि भोजन करते हैं और कमंडल तथा मोर पंख अपने पास रखते हैं.. दांत किटकिटाने वालो सर्दी में घास-फूस की शय्या पर गहरी नींद सोते हैं....! इसे शरीर पर की मूर्च्छा नहीं तो और क्या कहेंगे ? असं यमी संसारी जीवों को
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