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प्रचुरता है।
चितेऽन्तथिगहने, बहिनिमेन्यता बथा ।
त्यागात् कञ्चकमात्रस्य, भुजंगो न हि निर्विषः ॥४॥१६६॥ अर्थ :- जब तक मन अभ्यन्तर परिग्रह से प्राकुल -व्य कुल है. तब तक बाह्य
निर्ग्रन्थवत्ति व्यर्य है । क्योंकि कंचकी छोड़ देने से विषधर विष
रहित नहीं बन जाता। विवेचन :- भले ही तुमने वस्त्र-परिवर्तन कर दिया, निवास स्थान को तजकर उपाश्रय अथवा धर्मशाला में बैठ गये, केशमुडन कारने के बजाय केश-लोच कराने लगे, धोती अथवा पेंट के बदले 'चोल पट्टक' धारण करना शुरु कर दिया और जूते पहनने बजाय नगे पांव रहने लगे, लेकिन इससे तुम्हारे मन की व्याकुलता, विवशता और अस्थिरता कभी दूर नहीं होगी।
तब क्या करना चाहिये ?,
एक काम करो । प्राभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करने के लिए कटिबद्ध हो जाओ। जिस परिग्रह को तुमने तज दिया है, दुबारा उसका स्मरण न करो । त्याग किये गये परिग्रह से बढ़कर परिग्रह की प्राप्ति के लिये तत्पर न बनो । तभी मन प्रसन्न और पवित्र रहेगा । जब तक अन्तरंग राग-द्वेष एवं मोह की ग्रंथि का नाश न होगा, भौतिक पदार्थों का प्रान्तरिक आकर्षण खत्म नहीं होगा, तब तक मानसिक स्वस्थता असंभव है । अतस्थ मलीन भावों का संग्रह, परिग्रह मन को सदैव रोगी ही रखता है।
"लेकिन अन्तरंग-परिग्रह का त्याग सर्वथा दुष्कर जो है?'' मानते हैं । लेकिन उसके बिना बाह्य निग्रंथवेश वृथा है । साँप भले ही केंचुली उतार दे, लेकिन जब तक वह विष बाहर नहीं उगलेगा, तब तक वह निर्विष नहीं बन सकता । तुमने सिर्फ बाह्य-वेश का परिवर्तन कर दिया और बाह्याचार का परिवर्तन कर दिया । उससे भला क्या होगा ? क्या तुम उस लक्ष्मणा साध्वी के नाम से अपरिचित, अनभिज्ञ हो ?
प्राचीन समय की बात है । राजकुमारी लक्ष्मणा ने समग्र संसार के परिग्रह को त्याग दिया । वह संयममार्ग की पथिक बन गयी । भग
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