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परिग्रह-त्याग
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सच तो यह है कि बाह्य परिग्रह के साथ-साथ प्राभ्यन्तर परिग्रह का भी त्याग होना चाहिये । तभी विरक्ति और उदासीनता का आविर्भाव संभव है। यदि आभ्यन्तर परिग्रह रुप मिथ्यात्व और कषायों का त्याग नहीं किया, तो पुनः बाह्य परिग्रह की लालसा जागते विलंब नहीं लगेगा ।
संभव है कि जीव मानव-जीवन के सुखों का परित्याग कर स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति हेतु संयम भी ग्रहण कर ले, फिर भी वह अपरिग्रही नहीं बनता । क्योंकि प्राभ्यन्तर परिग्रह की उस की भावना पूर्ववत् बनी रहती है। ___ जबकि बाह्य-ग्राभ्यन्तर परिग्रह का त्यागी पुरुष, निर्मम-निरहंकारी बन, आत्मानन्द की पूर्णता में स्वयं को पूर्ण समझता है। वह भूलकर भी कभी बाह्य पदार्थों के माध्यम से अपने को पूर्ण नहीं समझता, ना ही पूर्ण होने का प्रयत्न करता है। अपित बाह्य पदार्थों के संयोग में अपनेग्राप को सदव अपूर्ण ही समझता है। अतः वह बाह्य पदार्थों का त्याग कर उन के प्रति मन में रहे अनुराग को सदा के लिए मिटा देता है।
बत्तीस कोटि सुवर्ण मुद्रायें और बत्तीस पत्नियों का तृणवत् परित्याग कर, प्राभ्यन्तर राग-द्वेष का त्याग कर, वैभारगिरि पर ध्यानस्थ रहे महामुनि धन्ना अणगार को जब भगवान महावीर ने देशना देते हुए भूरि-भूरि प्रशंसा की, तब समवसरण में उपस्थि देव-देवी, मनुष्य-- तिर्यंच, पशु-पक्षी, कौन उन भाग्यशाली धन्ना अणगार को नतस्तक नहीं हुआ था ? अरे, मगधाधिपति श्रेणिक तो वैभारगिरि की पथरीली, वीरान और भयंकर पगडंडी को रोंदते हुए धन्ना अणगार के दर्शनार्थ दौड़ पड़े थे। और महामुनि के दर्शन कर श्रद्धासिक्त भाव से उनके चरणों में झुक पड़े थे। आज भी इस ऐतिहासिक घटना की साक्षी स्वरुप 'प्रनुत्तरोषपातिक सूच' विद्यमान है । बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह के महात्यागी धन्ना अणगार के चरणों में तीन लोक श्रद्धाभाव से नतमस्तक हुए थे और आज भी उनका स्मरण कर हम नतमस्तक हो जाते हैं ।
चित्त की परम शान्ति, आत्मा की पवित्रता और मोक्ष-मार्ग की आराधना का सारा दार-मदार परिग्रह-त्याग की वृत्ति पर अवलंबित है। क्यों कि परिग्रह में निरन्तर व्याकुलता है, वेदना है और पाप
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