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ज्ञानसार
कषाय, गारव और प्रमादादि का सर्वथा त्याग करते हैं और निर्मम, निरहंकार बनकर संसार में विचरण करते हैं । ऐसे परम त्यागी योगी ही अहर्निश वन्दनीय हैं, जिनके वन्दन-रतवन से अनन्त कर्मों का क्षय होता है, असंख्य दोष नष्ट हो जाते हैं ओर गौरवमय गुणों का निरंतर प्रादुर्भाव होता है ।
-धन-संपदा आदि बाह्य परिग्रह है | -मिथ्यात्व-अविरति आदि प्राभ्यन्तर परिग्रह है।
ईन दोनों परिग्रहों का मुनि तृणवत् त्याग करें, मलबे की तरह उठाकर बाहर फेंक दें । खयाल रहे, घर में रहे कूड़े को बाहर फेंकने वाले को कभी उस का (कचरे का) अभिमान नहीं होता | अरे भाई, फेंकने लायक वस्तु फेंक दी, उसमें अभिमान कैसा ? जिस तरह कूडा
और मलबा संग्रह करने की वस्तु नहीं है, वैसे ही परिग्रह भी संग्रह करने योग्य नहीं, अपितु त्याग करने जैसो वस्तु है। किसी चीज को कूड़ा समझकर फेंक देने के बाद उसके प्रति तिलमात्र भी आकर्षण नहीं होता, जबकि वस्तु को मूल्यवान समझ कर उसका त्याग करने पर उसका आकर्षण सदा बना रहता है।
"मैंने लाखों-करोडों का वैभव क्षणमात्र में त्याग दिया.... मैंने विशाल परिवार का सुख सदा के लिये छोड़ दिया, मैंने महान त्याग किया है।" बार-बार ऐसे विचार मन में उठते रहें, तो समझ लो कि त्याग तणवत् नहीं किया है। इस तरह त्याग करने से उसके प्रति उदासीनता पैदा नहीं होती । त्यागी भूलकर भी अपने त्याग की गाथा न गाये। अरे, अपने मन में भी त्याग का मल्यांकन न करें।
शालिभद्र ने ३२ पत्नियों के साथ-साथ नित्य प्राप्त दैवी ६६ पेटियों का त्याग किया....ममतामयी माता का त्याग किया....वह त्याग निःसन्देह तणवत् त्याग था । वैभारगिरि पर उन के दर्शनार्थ पायी वात्सल्यमयी माता और प्रेमातुर पत्नियों की ओर आँख उठा कर देखा तक नहीं। उदासीनता और मोहत्याग की प्रतिमूर्ति सनत्-कुमार ने चक्रवर्तीत्व का त्याग किया....सर्वोच्च पद का त्याग ! लगातार ६ माह तक साथ चलने वाले माता-पिता और पत्नी-परिवार की ओर देखा तक नहीं, अपितु विरक्त भाव और उदासीनता धारण कर निरन्तर आगे बढ़ते रहे।
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