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लोकसंज्ञा-त्याग
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संपूर्ण सत्य मोक्षमार्ग पाकर तुम्हें अपनी आत्मा को कर्म-बंधनों से मुक्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिये ।' यह हकीकत है कि लोकरंजन करने से तुम्हारी प्रात्मशुद्धि असंभव है । शायद तुम्हारी यह धारणा है कि 'याराधना के कारण विश्व के जीव मेरी जी भरकर प्रशंसा करते हैं !' वह तुम्हारा निरा अज्ञान है । क्योंकि पुण्यकर्मों के उदय से लोकप्रशंसा प्राप्त होती है । जब तक तुम्हारे पूर्वभव के कर्म सबल हैं तब तक ही हर कोइ तुम्हारी स्तुति करेंगे । एक बार अशुभ कर्मों का उदय हुअा नहीं कि ये ही लोग तुम्हारी तरफ देखेंगे तक नहीं ! तुमसे बढ़कर पुण्यशाली आत्मा मिलते ही वे सब एक स्वर से उसकी प्रशंसा करने में खो जाएँगे और तुम्हें हमेशा के लिये भूल जाएंगे । तुम्हारी आराधना से क्या मोक्ष-विमुख लोग खुश होंगे ? नहीं, इसके बजाय तो आराधना के बलपर तुम अपनी आत्मा को ही प्रसन्न करो। परमात्मा का प्रेम प्राप्त करो । मन में और कोई अपेक्षा न रखो ! वर्ना तुम कभी आराधना से विमुख हो जाओगे । जब तुम्हारी आराधनासाधना की कोई प्रशंसा नहीं करेगा, तब तुम्हारा मन आराधना से उचट जाएगा।
लोकमंज्ञाहता हन्त नीचैर्गमनदर्शनैः !
शंसयति स्वसत्यांगमर्मघातमहाव्यथाम ॥६॥१६२॥ अर्थ :- खेद है कि लोकसंज्ञा से पाहत जीव, नतमस्तक मन्थर गति से चलते
हुए अपने सत्य-व्रतरुप अंग में हुए मर्म प्रहारों की महावेदना ही
प्रगट करता है। विवेचन : अफसोस....!
तुम मन्थर गति से नतमस्तक हो चलते हो....! भला, किसलिए? इसके पीछे आखिर क्या हैतु है ? क्या तुम लोगों को यह दिखाना चाहते हो कि, "भूलकर भी किसी जीव की हिंसा न हो जाए, अतः हम यों चलते हैं । धर्मग्रंथों में प्रदर्शित विधि का पालन कर रहे हैं ! दृष्टि पर हमारा संयम है....इधर....उधर कभो ताकते-झांकते नहीं और हम उच्च कोटि के पाराधक हैं। लेकिन यह ढोंग क्यों ? निरे दिखावे से क्या लाभ ? तुम्हारा दंभ खुल गया है ! लोग तुम्हें जब उच्च कोटि का पाराधक नहीं कहते तब तुम्हारा चहेरा कैसा हतप्रभ और
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