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और आतुर है, उस से वह लाखों योजन दूर रहती है । परिग्रह ही मानव की उदात्त भावनाओं को भस्मीभूत करता है.... विवेक का विलीनीकरण करता है । फलतः मानव वक्रगति का पथिक बन जाता है... सरल चाल कभी चलता नहीं ।
त्रिलोक को सदा-सर्वदा अशांत और उद्विग्न करने वाले परिग्रह नामक ग्रह का आजतक किसी खगोलशास्त्री ने संशोधन किया ही नहीं । उसके व्यापक प्रभावों का विज्ञान खोजा नहीं गया है । अलबत्ता, इस की वास्तविकता को आज तक सिर्फ सर्वज्ञ परमात्मा ही जान पाये हैं । अतः उन्होंने इसकी भीषणता / भयानकता का वर्णन किया है ।
असंतोषमविश्वासमारंभं दुःखकारणम् ।
मत्वा मूर्च्छाफलं कुर्यात, परिग्रह नियंत्ररणम् ॥
ज्ञानसार
- योगशास्त्र
परिग्रह अर्थात् मूर्च्छा... गृद्धि.... आसक्ति | इसका फल है : असंतोष, अविश्वास और आरंभ समारंभ | मतलब, दुःख, कष्ट और अशान्ति । अतः सदैव परिग्रह का नियंत्रण करना आवश्यक है ।
त्रिभुवन को अपनी अंगुलियों के इशारे पर नचाने वाले इस दुष्ट ग्रह को उपशान्त किए बिना जीव के लिए सुख-शान्ति असंभव है । सगर चक्रवर्ती के कितने पुत्र थे ? कुचिकर्ण के यहाँ कितनी गायें थी ? तिलक श्रेष्ठि के भंडार में कितना अनाज था ? मगध सम्राट नंदराजा के पास कितना सोना था ? फिर भी उन्हें तृप्ति कहाँ थी ? मानसिक शान्ति कहाँ थी ?
वैसे परिग्रह की वृत्ति द्रव्योपार्जन, उसका यथोचित संरक्षण श्रौर संवर्धन कराने प्रवृत्तियाँ कराती है । इस से परपदार्थों के प्रति ममत्व दृढ़ होता जाता है । परिणाम स्वरूप एक ओर धार्मिक क्रियायें संपन्न करने के बावजूद भी आत्मभाव निर्मल.... पवित्र नहीं हो पाता । तामसभाव और राजसभाव में प्रायः बाढ आती ही रहती है । कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यजी ने बताया है कि
'दोषास्तु पर्वतस्थूलाः प्रादुष्यन्ति परिग्रहे । '
परिग्रह के कारण पहाड़ जैसे बड़े और गंभीर दोष पैदा होते हैं ।
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