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शास्त्र
३६१ है, वह सर्वथा हेतुपूर्वक ही है ! क्योंकि मुनि तो परोक्ष-विश्व के अनन्य पथिक जो ठहरे ।
शद्धोञ्छाद्यपि शास्त्राज्ञानिरपेक्षस्य नो हितम् !
भौतहन्तुर्यथा तस्य पदस्पर्शनिवारणम् ॥६॥१६०॥ अर्थ : शास्त्रों की प्राजा की, अपेक्षा से रहित स्वच्छंदमति साधु के लिए शुद्ध
भिक्षा वगैरह बाह्याचार भी हितकारी नहीं है, जैसे भौतमति की
हत्या करने वाले को उनके पांवो को स्पर्श न करने की आज्ञा देना है। विवेचन : एक घना जंगल !
जंगल में भीलों की छोटी-बडी बस्तियाँ ।
उनका राजा भील्लराज । भील्लराज ने एक गुरू बनाये । उनका नाम भौतमति । भौतमति बाबा के पास एक सुन्दर छत्र था । वह मयुरपिच्छ का बना हुआ था । देखते ही मन को मोह ले ऐसा । उत्तम कारागिरी का वह एकमेव अद्भुत नमुना था। एक बार भील्लराज की पत्नी गुरु-दर्शन करने आयी, तो उसने बाबाजी का छत्र देखा ! मन ही मन वह ऊसे भा गया । उस ने भील्लरान से वह छत्र ला देने के लिए कहा। पत्नी-प्रेम में रंगा भील्लराज, बाबाजी के पास गया ।
"गुरुदेव ! आपका यह छत्र भील्ल-रानी के मन भा गया है ! अत: आप मुझे दीजिए !" उसने विनीत भाव से कहा !
"अरे पगले, यह कैसे संभव है ?" "क्यों नहीं गुरूदेव ?"
"यह छत्र साधु-संतों के काम का है ! तुम्हारे कोई काम का नहीं ! फिर देकर क्या लाभ ?"
"नहीं गुरुदेव, आपको देना तो पड़ेगा ही ! भील्ल-रानी के मन भा जो गया है ।"
बाबाजी ने साफ मना कर दिया !
भील्लराज नाराज हो उठा । वह पाँव पटकता बस्ती में गया और अपने अन्य भील साथियों को इकट्ठा कर बोला : “जामो भौतमति
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