________________
वर्तमान काल में जिनाज्ञा कुल ४५ आगमों में संकलित और संग्रहित है। वह इस तरहः ११ अंग+१२ उपांग+६ छेद+४ मूल + १० पयन्ना +२ नंदीमूत्र और अनुयोगद्वार-कुल ४५ मूल सूत्र हैं। उन पर लिखी गयीं चूर्णियाँ, भाष्य, नियुक्तियाँ और टीकाएँ ! इस तरह पंचांगी आगमों का अध्ययन-मनन और चिंतन करने से जिनाज्ञा का बोध हो सकता है। मात्र मूल सूत्रों को केन्द्रबिन्दु बनाकर स्व-मतानुसार उसका अर्थ निकालने वाला जिनाज्ञा को हर्गिज समझ नहीं सकता ! ठीक वैसे ही, ४५ प्रागमों में से कुछ प्रागम माने और कुछ नहीं मानें, उसे भी जिनाज्ञा का परिज्ञान नहीं हो सकता।
पंचांगी आगम के अलावा श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरि, श्री ऊमास्वाति वाचक, श्री हरिभद्रसरिजी, श्री हेमचद्रसरिजी, श्री वादिदेवसूरिजी, श्री शांतिसूरिजी, श्री विमलाचार्य. श्री यशोदेवसृरिजी, उपाध्याय श्री यशोविजयजी आदि महषियों के मौलिक शास्त्र-ग्रन्थों का अध्ययन पठन और चिंतन-मनन करना परमावश्यक है । ईन पूर्वाचार्यों ने जिनाज्ञा को अपनी अनूठी शैली और तार्किक वाणी के माध्यम से उस में रहे रहस्यों को अधिकाधिक मात्रा में उजागर करने का प्रयत्न किया
जिनाज्ञा की ज्ञान-प्राप्ति कर किया हुमा आचारपालन सदा-सर्वदा प्रात्महितकारी है। जिनाज्ञा-सापेक्षता सदैव कर्म-बंधनों का नाश करती है। 'मैं अपनी हर प्रवृत्ति जिनाज्ञानुसार करूँगा।' यह भाव प्रत्येक मुनि/ श्रमण के मनमें दृढ होना जरुरी है ।
प्रज्ञानाऽहिमहामंत्रं स्वाच्छन्द्यज्वरलङ्गनम !
धर्मारामसुधाकुल्यां शास्त्रमाहुमहर्षय : ।।७।। १६१॥ अर्थ : ऋषिश्रेष्ठों ने, शास्त्र को प्रज्ञान रुपी सर्प का विष उतारने में महामत्र
समान, स्वच्छंदता रुपी ज्वर को उतारने में उपवास समान और धर्म
रुपी उराधन में अमृत की नीक समान कहा है । विवेचन : कहा गया है कि
-सर्पका विष महामंत्र उतार देता है। * ४५ पागम परिशिष्ट में देखिए !
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org