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शास्त्र
उपवास और कठोर तपश्चर्या का आधार लेना होगा। उसी तरह उजड़ते धर्मोद्यान को हरा-भरा रखने के लिए सदैव 'शास्त्र' की नीक को निरंतर खुला रखना होगा, वर्ना उसे सूखते / वीरान होते पल की भी देरी नहीं लगेगी। शास्त्राध्ययन क्यों आवश्यक है, इसे तुमने अच्छी तरह समझ लिया न ? यदि इन तथ्यों को परिलक्षित कर शास्त्राध्ययन
और शास्त्र-स्वाध्याय शुरु रखोगे तो निःसंदेह तुम्हारी यात्मा का कायाकल्प ही हो जाएगा। जहर के उतर ने, ज्वर के कम होने और धर्मोद्यान को फूला-फला देखकर तुम्हें जो आहूलाद और आनंद होगा, उसकी कल्पना करें! उद्यान के नवपल्लवित होने से तुम्हारा दिलो-दिमाग बागबाग हो उठेगा, सारा समाँ हँसता-खेलता नजर आएगा ! जब तुम विषरहित निरोगी बन धर्मोद्यान में विश्राम करोगे तब तुम्हें देवेन्द्र से भी अधिक अानन्द प्राप्त होगा!
हाँ, जब जहर सारे शरीर में फैल गया हो, ज्वर से तन-बदन उफन रहा हो, तब तुम्हें उद्यान में सुख और शांति नहीं मिलेगी। फलस्वरूप, उसकी रमणीयता भी तुम्हें प्रसन्न नहीं करेगी, सुगंधित पुष्प तुम्हें सुवासित नहीं कर सकेंगे, ना ही उद्यान तुम्हें आहुलादित कर सकेगा । इसीलिए 'शास्त्र' कि जिसका अर्थ स्वयं तीर्थकर भगवंतों ने बताया है, जिसे श्री गणधर भगवंतों ने लिपिबद्ध किया है, और पूर्वाचार्यों ने जिसके अर्थ को लोकभोग्य बनाया है, का निरंतर-नियमित. रुप से चिंतन-मनन करना चाहिए।
शास्त्र-स्वाध्याय अपने आप में व्यसन रुप बन जाना चाहिए। उसके बिना साँस लेना मुश्किल हो जाए। सब कुछ मिल जाए, लेकिन जब तक शास्त्र-स्वाध्याय नहीं होगा तब तक कुछ नहीं। ठीक उसी तरह जैसे-जैसे शास्त्रस्वाध्याय बढता जाय वैसे-वैसे प्रज्ञान, स्वच्छंदता और धर्महीनता की वृत्ति नष्ट होती जायेगी। अत: तुम्हें सदा खयाल रहे कि इसो हेतूवश शास्त्र-स्वाध्याय करना परमावश्यक है।
शस्त्रोक्ताचारकर्ता च शास्रज्ञः शास्त्रदेशक : !
शास्त्रोकहा महायोगी प्राप्नोति परमं पदम् ।।८।।१६२।। अर्थ : शास्त्र प्रणीत प्राचार का पालनकर्ता, शास्रों का ज्ञाता, ज्ञास्त्रों का
उपदेशक और शास्त्रों में एकनिष्ठ महायोगी परमपद पाते हैं ।
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