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ज्ञानसार
निस्तेज हो उठता है ? दूसरे प्राराधकों की प्रशंसा तुम्हें अच्छी नहीं लगती ! प्रसंगोपात उनकी निंदा और टोका-टिप्पणी करते हो ! तुम सदा-सर्वदा अपनी ही गुणगाथा सुनना पसंद करते हो । शायद लोकप्रशंसा पाने के लिए तुमने कमर कस रखी है । तप, व्याख्यान, शिष्य परिवार, मलिनवस्त्र और अपने वारणी-विलास से किसे आकर्षित करना चाहते हो ? शिवरमणी को ? नहीं, तुम सिर्फ लोगों को अपने भक्त बनाना चाहते हो और येन-केन प्रकारेण उन्हें खुश रखना चाहते हो।
तुम धीरे-धीरे मन्थर गति से क्यों चल रहे हो ? तुम्हारे सत्य.... संयम आदि अंग पर मार्मिक प्रहारों की मार पडी है । उससे असह्य वेदना हई है....! लोकसंज्ञा ने तुम्हारे मर्मस्थान में प्रहार किया है ! इन प्रहारों की वेदना से गति धीमी न हो जाएं तो और क्या हो ?
तुम नतमस्तक हो चलते हो ? क्या करें ? शायद लोकसंज्ञा की चकाचौंध से तुम्हारी दृष्टि चौंधिया गई हो और तुम्हें ऊपर देखने में कष्ट होता है ! वाकई, दुःख की बात है ! अफसोस है, तुम्हारा वह दम्भ देखा नहीं जाता; लेकिन इससे तुम्हें मुक्ति कैसे दिलाये ? सिवाय खेद प्रकट करने के अतिरिक्त कोई उपाय ही नहीं !
धर्म की आराधना और प्रभावना करते समय कभी प्रात्मा की विषय-कषायों से निवृत्ति स्मरण में रही है ? परमात्मा का शासन याद रहा है ? नहीं तो फिर क्या याद रखा है ? 'मैं....अहं!' तुम्हें सदा अपनी ही पड़ी रहती है ! तुम कठोर तपश्चर्या करते हो, जमकर क्रिया करते हो....। अगर उसमें मोक्ष और आत्मा को केन्द्र-बिंदू बना लो तो ? बेड़ा पार होते देर नहीं लगेगी ! अत कहता हूँ, अपनी आत्मा को पहचानो, उसकी स्वाभाविक और वैभाविक अवस्थाओं को जानने की कोशिश करो । मोक्ष के अनंत सुख और असीम शांति-हेतु हमेशा गतिशील रहो ।
यदि तुम अपना यह अंतिम लक्ष्य, उद्देश्य और आदर्श नहीं रखोगे तो विषय-कषायों में निरंतर वृद्धि होती रहेगी । संज्ञाएँ दिन-ब-दिन पूष्ट बनती जायेंगो । लोकसंज्ञा अनंत भवभ्रमण में फंसा देगी। कीर्ति की लालसा दिन दुगुनी और रात चौगुनी बढ़ती जाएगी.... और जब 'यशकोति' नामकर्म तुम्हारे पास शेष नहीं रहेगा, तब क्या करोगे ?
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