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शास्त्र
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यह रही पहली नरक । इसे 'रत्नप्रभा' के नाम से पहचाना जाता है। इसके नीचे शर्कराप्रभा है ! तीसरी नरक वालुकाप्रभा है । चौथी नरक को देखा ? उफ ! कैसी भयानक, खौफनाक है ? उसे पंकप्रभा कहते हैं । पाँचमी नरक का नाम है धूमप्रभा । जबकि छठवीं तमःप्रभा
और सातवीं महातमःप्रभा है। गाढा अंधकार है सर्वत्र । कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता। जीव आपस में मार-काट और खन की नदियाँ बहाते नजर आते हैं। न जाने केसी घोर वेदना....चोख...चित्कार... ! सिर फट जाए-ऐसा कोलाहल ! तुमने अच्छी तरह देखा न? नरक के जीव मरना चाहते हैं, लेकिन मर नहीं सकते । हाँ, कट जाएंगे, पाँवों के तले कुचल जाएगे, लेकिन मरेंगे नहीं ! जब तक आयुष्य पूरा न हो तब तक मृत्यु कैसी ? किसी तरह सडते-गलते भी निर्धारित अवधि पूरी करना है। इसे अधोलोक कहा जाता है।
अब तुम जहाँ हो, उसी को ध्यान से देखो। इसे 'मध्यलोक' कहते हैं। शास्त्र-चक्षु के माध्यम से इसे भलीभाँति देखा जा सकता है। एक लाख योजन का जंबूद्वीप....उसके आस पास दूर-सुदूर तक दो लाख योजन परिधि में फैले 'लवण समुद्र' के इर्द-गिर्द है 'घातकी खंड !' इसका क्षेत्रफल चार लाख योजन है। उसके बाद कालोदधि समुद्र....पुष्कर द्वीप ....फिर समुद्र, फिर द्वीप, इस तरह मध्यलोक में असंख्य समुद्र और द्वीप फैले हुए हैं । अंत में 'स्वयंभूरमण समुद्र है।
चीदह राज लोक की अद्भुत और अनोखी रचना देखी ? उस के सामने खड़े होकर यदि तुम उसे देखो तो उसका प्राकार कैसा लगेगा? जिस तरह कोई मानव अपने दो पाँव फैलाकर और दो हाथ कमर पर रखकर अदब से चपचाप खड़ा हो ! क्यों हबह ऐसा लगता है न?
यह चौदह 'राजलोक' है ।* 'राजलोक' क्षेत्र का एक माप है !धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जावास्तिकाय, ये पांच द्रव्य शास्त्रदृष्टि से अच्छी तरह देखे जाते हैं ।
जब श्रुतज्ञान के क्षयोपशम के साथ अचक्षु दर्शनावरण का क्षयोपशम जुडता है, तब शास्त्रचक्षु खुलते हैं और विश्वदर्शन होता है । * दखिए परिशिष्ट
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