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ज्ञानसार
तौर पर ज्ञपरिज्ञा आत्मा का स्वरूप दर्शाती है और प्रत्याख्यान-परिज्ञा उसके अनुरुप पुरुषार्थ कराती है !
आत्मा को जानने के लिए कहीं और भटकने की आवश्यकता नहीं है, प्रात्मा में ही जानना है ! अनंत गुणयुक्त और पर्याययुक्त प्रात्मा में हो विशुद्ध प्रात्मा की खोज करनी है, जानना है । लेकिन जानने की अभिलाषा रखनेवाली आत्मा को मोह का त्याग करना होगा; तभी वह इसे सही स्वरूप में जान सकेगी।
आत्मानमात्मना वेत्ति मोहत्यागाद् यदात्मनि ।
तदेव तस्य चारित्रं तज्ज्ञानं तच्च दर्शनम् ।। __न जाने कैसी रोचक/आकर्षक दिल-लुभावनी बात कही है ! मोह का त्याग करो और आत्मा में ही प्रात्मा को देखो ! सचमुच यही ज्ञान है, श्रद्धा है और चारित्र है ! और इसका होना निहायत जरूरी है ! फलतः श्रुतज्ञान द्वारा जहाँ आत्मा ने प्रात्मा को पहचान लिया वहाँ 'अभेदनय' के अनुसार श्रुतकेवलज्ञानी बन गया ! क्योंकि आत्मा स्वयं में ही सर्वज्ञानमय है ।
* आत्मा (मोहत्याग कर) . * आत्मा को सर्वज्ञानमय) * आत्मा द्वारा (श्रुतज्ञान) • प्रात्मा में (सर्वगुण-पर्यायमय जाने)
जो हि सुण्णाभिगच्छइ अप्पारणमणं तु केवलं शुद्धं । तं सुअकेवलिमिसिणो भणति लोगप्पदीवयरा ।।
– समयप्रामृते "जिस श्रुतज्ञान के द्वारा केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं, उन्हें लोकालोक में प्रखर ज्योति फैलाने वाले श्रुतकेवली कहते हैं !"
जब ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाय कि आत्मा अनादि-अनंत, केवलज्ञान-दर्शनमय है, कर्मों से अलिप्त और अमूर्त है, तब 'मैं साध्य-साधक और सिद्धस्वरूप हूँ ! ज्ञान-दर्शन और चारित्रादि गुणों से युक्त हूँ, ऐसी ज्ञान-दृष्टि अपनेआप प्रकट हो जाती है। वह रत्नत्रयी की अभेद परिणति है। उस में ही आत्मसुख की अनुपम संवेदना का यथार्थ अनुभव होता है ।
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