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ज्ञानसार
एक दिन की बात है ! ब्राह्मण-कन्या नित्यानुसार बैल को लेकर जंगल में गयी और एक वृक्ष नोचे चरने के लिए उसे छोड दिया ! उस वृक्ष पर विद्याधर-युगल बैठा हुआ था ! बैल को निहार कर विद्याधर ने अपनी पत्नी से कहा : “यह स्वभाव से बैल नहीं है । लेकिन जडी-बूटी खिलाने से मनुष्य का बैल बन गया है।"
विद्याधर पत्नी विचलित हो गयी । उसे बेहद दुःख हुमा । उसमें करुणा भावना जग पड़ी ! उसने दयार्द्र होकर विद्याधर से कहा : "बहुत बुरा हुआ । क्या यह दुबारा मनुष्य नहीं बन सकता ?'
"यदि इसे 'संजीवनी' नामक जड़ी खिला दी जाए तो यह पुनः पुरुष होसकता है और संजीवनी इसी वट वृक्ष के नीचे ही है ।" विद्याधर ने शांत स्वर में कहा ।
__ जमीन पर बैठी ब्राह्मण-कन्या विद्याधर पति-पत्नी की बात सुन, अत्यंत प्रसन्न हो उठी ! उसने अपने पति 'बैल' को संजीवनी खिलाने का मन ही मन निश्चय किया ! लेकिन बदनसीब जो ठहरी ! वह 'संजीवनी' जडी-बूटी से पूर्णतया अपरिचित थी ! वक्ष के नीचे भारी मात्रा में धास उगी हुई थी ! उसमें से अमुक जडी-बुट्टी ही 'संजीवनी' है, यह कैसे समझे ? ____ अजीब उलझन में फंस गयी वह । कुछ क्षण विचार करती रही और तब उसने मन ही मन कुछ निश्चय कर, वृक्ष तले उगी वनस्पति चरने के लिए बैल को छोड दिया ! परिणाम यह हुआ कि वनस्पति चरते ही बैल पुन: मनुष्य में परिवर्तित हो गया ! अपने पति को सामने खडा देख, उसकी खशी की कोई सीमा न रही !
तात्पर्य यह है कि जीव भले ही अपनबंधक हो, मार्ग-पतित या मार्गाभिमुख, समकितधारी, देशविरति या सर्वविरति साधु हो ! यदि उसे मध्यस्थ भाव-प्रात्मानुकूल समभाव की जडी-बुट्टी खिलादी जाएँ, तो अनादि परभाव की परिणतिरुप पशुता खत्म हो जाएँ, और वह स्वरुपविषयक ज्ञान में कुशल भेदज्ञानी पुरुष बन जाए । मध्यस्थ वृत्ति इस प्रकार हितकारी सिद्ध होती है । लेकिन उसके लिए कदाग्रह का त्याग किये बिना कोई चारा नहीं। वास्तविकता यह है कि असद् आग्रह जीव को पतन की गहरी खाई में फेंक देता है ।
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