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प्राप्तः षष्ठं गुणस्थानं भवदुर्गाद्विलङ्घनम् । लोकसंशारतो न स्यान्मुनिर्लोकोत्तरस्थितिः ॥ १ ॥ १७७॥ अर्थ : जिसमें संसार रूपी विषम पर्वत का उल्लंघन है, ऐसे छठे गुणस्थानक को प्राप्त और लोकोत्तरमार्ग में जो रहा हुया है ऐसा साधु, मन में लोकसंज्ञा में प्रीतिबाला नहीं होता है ।
विवेचन : मुनिवर्य, याप कौन हैं ?
यदि आप अपने व्यक्तित्व को देखोगे तो निःसंदेह 'लोकसंज्ञा' में प्रीतिभाव नहीं होगा । यहाँ भाप को उच्च श्रात्म-स्थिति का यथार्थ वर्णन किया गया है :
( १ ) श्राप छठे गुरणस्थान पर स्थित हैं । (२) लोकोत्तर - मार्ग के पथिक हैं ।
ज्ञानसार
श्रतः सदैव आप के स्मृति-पट पर यह तथ्य अंकित होना चाहिए कि, 'मैं छठे गुणस्थान पर स्थित हूँ । इसके पहले के पांच गुणस्थान मैंने सफलतापूर्वक पार कर लिए हैं । यतः मुझे कुदेव, कुगुरु और कुधर्म के प्रति श्रद्धाभाव से नहीं देखना चाहिए । मैं दुध-दहीं में पांव नहीं रख सकता । में मिश्र - गुरगस्थान पर नहीं हूँ । श्रापकी दृढ श्रद्धा होनी चाहिए कि, 'जिनोक्त तत्त्व ही सत्य हैं ।' में गृहस्थ नहीं हूँ... प्रत: गृहस्थ की भांति मेरी वृत्ति और बर्ताव नहीं होना चाहिये । मैं अणुव्रतधारी नहीं अपितु महाव्रतधारी हूँ । जिन पापो को बारह व्रतधारी श्रावक तज नहीं सकता, मैंने उन्हें त्रिविध-त्रिविध ( मन वचन काया से कराना, और अनुमोदन करना) तज दिया है । अत: मेरे लिए ऐसी श्रात्मानों का सम्पर्क सम्बंध हितकारक है, जिन्होंने मेरी तरह पापों को त्रिविध-त्रिविध छोड़ दिए हैं । अपने पापों के परित्याग के साथ ही मैंने देव गुरू और संघ की साक्षी, सम्यग् ज्ञान, दर्शन, और चारित्र की आराधना करने की श्रात्मा की अनुभूति से कठोर प्रतिज्ञा की है । फलस्वरूप मुझे ऐसी ही सर्वोत्तम आत्मायों का सहवास पसंद करना चाहिये जो सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना में प्रोत-प्रोत हो ।”
हे मुनिराज ! आप को इस तरह का चिंतन-मनन करना चाहिये, ताकि आप पापासक्त और मिथ्या कल्पनाओं में खोये जीवो के सहवास,. परिचय और उन्हें खुश करने की वृत्ति से बच जाओ ।
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