________________
लोकसंज्ञा-त्याग
और अपूर्व भेंट, सद्धर्म-चितामरिण प्रदान करता है । उक्त सद्धर्म को लोकप्रशंसा के लिये अथवा लोकरंजनार्थ देने वाले, गडरिये से भी बढ़कर मूर्ख हैं ।
क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे पास जो सद्धर्म है, वह अचित्य चितामरिण है ? आखिर सद्धर्म को तुम क्या समझ बैठे हो ? जिस सद्धर्म से तुम आत्मा की अनत संपदा और ढेर सारी संपत्ति प्राप्त कर सकते हो, उसे तुम लोक-प्रशंसा के खातिर कोडी के मूल्य बेच रहे हो ? लोग भले ही तुम्हें त्यागी, विद्वान् तपस्वी, ब्रह्मचारी, परोपकारी और बुद्धिमान कहें, लेकिन ज्ञानियों की दृष्टि में तुम मूर्ख हो । तुमने धर्म का उपयोग लोक-रंजन हेतु किया, यही तुम्हारी मूर्खता है ।
अरे, तुम्हारी मूर्खता की कोई हद है ? किसी को तुम सद्धर्म के द्वारा लोक-प्रशंसा पाते देखते हो, तब उस से प्रभावित हो जाते हो ? वह तुम्हे महान् प्रतीत होता है और खुद को कनिष्ट, तुच्छ और छोटा समझते हो ! फलत: तुम्हारे मन में भी लोक-प्रशसा और लोकाभिनन्दन पाने की तीव्र लालसा पैदा होती है ! सद्धर्म-प्राप्ति से, सद्धर्म की आराधना से तुम्हें तनिक भी संतोष, आनन्द और तृप्ति नहीं होती।
तुम तपश्चर्या करते हो । लेकिन जानते हो कि तप सद्धर्म ही है ! क्या तुम तपश्चर्या के माध्यम से लोक-प्रशंसा के इच्छुक नहीं हैं न ? तुम अपनी तपश्चर्या के विज्ञापन द्वारा ' लोग मेरी प्रशसा करेंगे ।' भावना नहीं रखते हो न ? तुम दान देते हो ! दान सद्धर्म है । तुम दान के बलपर लोक-प्रशंसा पाने की चाह नहीं रखते हो न ? दान देकर मन ही मन हरखाते हैं ? नहीं, तुम्हारे दान की दूसरे लोग प्रशंसा करते हैं, तब ही सुख होता है न ?
ज्ञानप्राप्ति से असीम आनद मिलता है क्या ? दूसरे लोग जब तुम्हें ज्ञानी विद्वान कहे, तब ही आनन्दित होते हैं न ?
ब्रह्मचर्यपालन से प्रसन्नता मिलती है क्या ? दूसरे तुम्हें ब्रह्मचारी कहकर सम्बोधित करें, तब ही प्रसन्न होते हो न ?
यदि सद्धर्म के माध्यम से तुम लोक-प्रशंसा पाना चाहते हो, तब चिंतामणि-रत्न के बदले बेर खरीदनेवाले उस गडरिये से अधिक बुद्धि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.