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ज्ञानसार
लिए प्रयत्न करता रहूँगा । अब पीछेहठ नहीं ! किसी कीमत पर और किसी हालत में भी पीछेहठ नहीं ! लोक-संज्ञा में मैं अपना पतन कदापि नहीं होने दूगा ।।
यथा चिंतामणि दत्ते बठरो बदरीफलः ।
हहा जहाति सद्धर्म तथं व जनरंजनैः ॥२॥१७८॥ अर्थ :- जिस तरह कोई मूर्ख बेर के बदले में चिन्तामणि रत्न देता है, ठीक
उसी तरह कोई मूढ लोक-रंजनार्थ अपने धर्म को तज देता है ।। विवेचन : एक था गडरिया ।
वह प्रतिदिन ढोर चराने जंगल में जाता था ।
अचानक एक दिन उसे चिन्तामणि-रत्न मिल गया। उसे वह रंगबिरंगी पत्थर पसन्द आ गया । उसने उसे बकरी के गले में बांध दिया ! शाम को गडरिया गांव लौटा ! गाँव के बाहर कोई एक आदमी बेर बेच रहा था । पके और रसीले बेर देखकर अनायास उसके मुंह में पानी भर पाया।
उसने उसके पास जाकर कहा : "दो-चार बेर मुझे भी दे दे !" 'बेर यों मुफ्त में नहीं मिलते ! जेब में पैसे हैं ?'
गडरिया के पास फटी कौडी भी न थी ! वह सोच में पड़ गया! बेर खाने थे, लेकिन पैसे कहां से लाये ? उसे एक उपाय सुझा ! उसने बकरी के गले में बंधा चिंतामरिण-रत्न देकर बदले में बेर खरीद लिए । बेरवाले ने चमकते पत्थर को देखा और वह भी ललचा गया। उसने कभी ऐसा पत्थर देखा न था ! उसी समय वहां से एक महाजन गुजरा। उन की तेज नजर बेरवाले के हाथ में रहे चमकीले पत्थर पर पडी । वह वहीं ठिठक गया । वह जौहरी होने के कारण चिंतामणि-रत्न पहचानते उसे देर न लगो । इधर-उधर की बातों में उलझाकर उसने बेरवाले को कुछ पैसे देकर, चितामरिण-रत्न खरीद लिया ।
धर्म देकर लोक-प्रशंसा खरीदनेवाला भी उस गडरिये जैसा ही है । जबकि धर्म चिंतामणि-रत्न से अधिक कीमती और विशेष है । वह अचिंत्य चितामणि है....। जीव कभी कल्पना भी न कर सके, वैसी दिव्य
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