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जानसार
__ कहने का तात्पर्य यह है कि मुनिश्वर को नित्यप्रति अध्यात्म-समाधिस्थ ही रहना है। उन्हें अध्यात्म को ही अपना आवास मानना चाहिए । जब-जब बाहर निकलने का प्रसंग आए तब विवेकारूढ होकर ही जाना चाहिए । बिना विवेक के कहीं न जाएं और ना ही कुछ देखने का प्रयत्न करें । ज्ञान और चारित्र के साथ ही जीना और मरना है । जीवन का आनन्द सुख एवं शांति, ज्ञान तथा चारित्र के सहवास में ही प्राप्त करें। इनका संग छोड किन्हीं दूसरो में खो कर, सुख शांति प्राप्त करने का व्यर्थ प्रयत्न न करें । ज्ञान और चारित्र के प्रति पूरी निष्ठा हो । यदि इन पर इमानदारी से अमल किया जाए तो कभी किसी चीज को कमी महसूस न होगी और कीर्ति-पताका सर्वत्र फहरती रहेगी ।
शंकर महाराज ! आप अपना वैराग्य-डमरू बजा कर राग-द्वेष से भरी दुनिया को निरंतर सुनाते रहिए !
ज्ञानदर्शनचद्रार्कनेत्रस्य नरकच्छिदः ।
सुखसागरमग्नस्य कि न्युनं योगिनो हरेः ।।६।। १५८।। अर्थ ! जान-दर्शन रूपी सूर्य और चन्द्र जिनके नेत्र हैं, जो नरकगति (नरका
मुग-इन्ता ) का विनाश करने वाले हैं, ऐसे 'सुख रूपी समुद्र में
निमग्न योगी को कृष्ण से भला क्या न्यून है ? विवेचन : श्री कृष्ण !
-चंद्र और सूर्य जिन को दो प्रांखे हैं, -जिन्हों ने नरकासुर का वध किया है,
-अथाह सागर में जो निमग्न रहते हैं, __ योगीराज ! तुम्हें श्री कृष्ण से भला क्या कमी है ? क्या आपकी दो आँखे चन्द्र-सूर्य नहीं है ? क्या आपने नरकासुर का वध नहीं किया है ? क्या आप सुखसागर में सोये नहीं हैं ? फिर भला, आप अपने में किस बात को न्युनता का अनुभव करते हैं ? आप स्वयं ही तो श्रीकृष्ण है ।
आपकी दो आंखे हैं : ज्ञान और दर्शन ! ये चन्द्र-सूर्य समान ही तेजस्वी और विश्व प्रकाशक हैं ।
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