________________
कर्मविपाक-चिन्तन
३०९
लिए ! अरे, वह प्रव्रज्या ग्रहण कर साधु भी बन जाएगा ! लेकिन मोक्षप्राप्ति और आत्मविशुद्धि के लिए प्राराधना नहीं करेगा, परंतु देवलोक के दिव्य सुख और उच्च पद पाने के लिए पाराधना करेगा। शास्त्रों में उल्लेख है कि 'शुद्ध चारित्रपालन से देवगति प्राप्त होती है । ऐसा जान कर वह दीक्षित होगा । चारित्रपालन करेगा! कठोर तपस्या और निरतिचार चारित्र का पालन करेगा ! लेकिन कर्म-बंधनों से मुक्ति पाने की भावना पैदा ही नहीं होगी। वह उसे ऐसे भुलभुलैये में फैसा देगा कि मुक्ति होने के विचार ही उसमें न जगे !
__ कर्म-बंधन की श्रृंखला से आत्मा को मुक्त करने का विचार तक प्र-चरमावतं काल में नहीं आता । वह धर्माचरण करता अवश्य दिखाई देता है, लेकिन प्रात्मशुद्धि और मुक्ति के लिए नहीं, बल्कि संसार-वृद्धि के लिए करता है।
चरमावर्त काल में अवश्य आत्मधर्म का ज्ञान होता है । प्रात्म-धर्म की आराधना और उपासना भी होती है । लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी कर्मबंधन से मुक्ति की इच्छा रखनेवाले साधु-मुनिराज के इर्द-गिर्द 'कर्म' निरंतर चक्कर लगाते रहते हैं ! छिद्रान्वेषण करते हैं ! और यदि एकाध छिद्र दृष्टिगोचर हो जाए तो प्रानन-फानन में घुस-पैठ कर मुनि के मुक्ति-पुरूषार्थ को शिथिल बनाने पर तुल जाता है । उन के मार्ग में नाना प्रकार को रूकावटें और अवरोध पैदा करते विलम्ब नहीं करता । अतः मुनि को सदा सावधान रहना आवश्यक है। वह कोई छिद्र न रहने दे अपनी पाराधना-उपासना की रक्षापंक्ति में ! तभी । सफलता संभव है।
प्रमाद के छिद्रों में से कर्म आत्मा में प्रवेश करता है ।
मानव जीवन के निद्रा, विषय, कषाय, विकथा, और मद्यपान-ये पाँच प्रधान प्रमाद हैं । अत: मुनि को अपनी निद्रा पर संयम रखना चाहिए। उन्हें रात्रि के दो प्रहर अर्थात् छह घंटे ही शयन करना चाहिए । वह भी गाढ निद्रा में नहीं । दिन में निद्रा का त्याग उनके लिए श्रेयस्कर है । पांच इन्द्रियों के विषयों में से किसी भी विषय के प्रति कभी आसक्ति न होनी चाहिये । क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों के पराधीन नहीं होना चाहिए । विकथाओं में कभी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org