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भवोद्वेग
भगवंत ने मुनियों को उपसर्ग सहने का उपदेश दिया, भला किस लिए ? मुनिगरण संसार का भय दूर करने के लिये आराधना-साधना करते हैं । उपसर्गों के माध्यम से उसका 'आपरेशन' होता है और संसार का भय सदा के लिए मिट जाता है । साथ ही प्रापरेशन करने वाले रोगी के मन में डाक्टर के प्रति रोष की भावना पैदा नहीं होती। उसके लिए वह डाक्टर परमोपकारी सिद्ध होता है। तभी खंधकमुनि को राजकर्मचारी उपकारी प्रतीत हुए। अवंति सूकुमाल को सियार उपकारी लगा और मेतारज मुनि को सुनार ।
ठीक इसके विपरीत आपरेशन करने वाला डाक्टर बीमार को दुष्ट प्रतीत हो.... अनुपकारी लगे तो आपरेशन बिगड़ते देर नहीं लगती। इसी तरह उपसर्गकर्ता दुष्ट लगे, तो मानसिक संतुलन ढलते विलंब नहीं होगा । साथ ही संसार के भय में एकाएक वृद्धि हो जाएगी। खंघकसूरिजी को मंत्रो पालक 'डाक्टर' न लगा, बल्कि कोई दुष्ट लगा । फलत: उनका संसार भय दूर न हुआ । उनके शिष्यों के लिए मंत्री पालक मुक्ति पाने में अनन्य सहायक बन गया ।
जीव को समताभाव से उपसर्ग सहने हैं....। उससे भवरोग तुरंत दूर हो जाते हैं । हम स्वेच्छया उपसर्ग सहन नहीं करें, लेकिन कर्मप्रेरित उपसर्गों को भी हंसते-हंसते सह लें तो काम बन जाय ।
बालक आपरेशन-कक्ष में जाने से डरता है ! अपने समक्ष आपरेशन के लिए आवश्यक शस्त्र लिए डाक्टर को देख चीख पड़ता है भला, क्यों ? उसे अपने रोग की भयानकता अवगत नहीं है । वह डाक्टर को रोगनिवारक नहीं मानता । इसी तरह जीव भी बालक की तरह यदि अविकसित बुद्धि वाला होता है, तो वह उपसर्ग के साये से भी चीत्कार कर उठता है । उपसर्ग की उपकारिता से वह पूर्णतया अनभिज्ञ जो ठहरा।
तात्पर्य यही है कि उपसर्ग सहने आवश्यक हैं । इससे भव का भय हमेशा के लिए दूर होता है ।
स्थैर्य भवभयादेव, व्यवहारे मुनिजेत् ।
स्वात्मारामसमाधो तु, तदप्यन्तनिमज्जति ॥८॥१७६।। मर्थ :- व्यवहार नय से संसार के भय से ही साधु स्थिरता पाता है। परंतु
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