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भवोद्वेग
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मन में रखना चाहिए।
प्रव्रज्याग्रहण करने मात्र से ही दुर्गति पर विजयश्री प्राप्त कर ली है, ऐसी मान्यता मुनि के मन में नहीं होनी चाहिए। वह लापरवाह और निश्चिन्त न बने । यदि मुनिवर भव-भ्रमण का भय तज दें, तो - शास्त्र-स्वाध्याय में प्रमाद करेगा।
विकथा (स्त्री, भोजन, देश, राजकथा) करता रहेगा। * दोषित भिक्षा लाएगा । * कदम-कदम पर राग-द्वेष का अनुसरण करेगा । * महाव्रत-पालन में अतिचार लगाएगा । * समिति- गुप्ति का पालन नहीं करेगा । of मान-सम्मान और कीति-यश का मोह जगेगा । * जन-रंजन के लिये सदैव प्रयत्नशील रहेगा। * संयम-क्रिया में शिथिल बनेगा ।
इस तरह अनेक प्रकार के अनिष्टों का शिकार बनेगा । अतः भव का भय...दुर्गति-पतन का भय, मुनि को होना ही चाहिए ।
पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने तो संसार को सिर्फ समुद्र की संज्ञा ही दो है । लेकिन 'अध्यात्म सार' में उन्होंने इसे अनेक प्रकार के रूप और उपमाओं से उल्लेखित किया है। उदाहरणार्थ : संसार एक घना वन है, भयंकर कारागृह है, वीरान श्मशान है, अंधेरा कुंपा है आदि । इस तरह भवस्वरूप की विविध कल्पनायें कर उस पर गहरा चिन्तनमनन करना चाहिये । संसार प्रसार है, इसकी अनुभूति हुए बिना इसके वैषयिक सुखों को आसक्ति का पाश कभी नहीं टूटता । साथ ही, भव के प्रति रहे राग को डोर टूटे बिना भव-बन्धन तोड़ने का पुरुषार्थ संभव नहीं ।
लेकिन इसके लिए भवस्वरूप के चिन्तन में खो जाना चाहिये, तन्मय होना चाहिये । भवसागर के किनारे खड़े रहकर उस की भीषणता का अनुभव करना । भव-श्मशान के एक कोने पर खड़े हो, उसकी वीरानी और भयानकता देखना । भव-कारागृह में प्रवेश कर उसकी
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