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ज्ञानसार
लिप्त नहीं होना चाहिए। नारी के संबंध मे भूलकर भी साधु चर्चा न करें। भोजनादि विषयक बातचीत से दूर रहना चाहिये। देस-परदेस की और राजा महाराजाओं की कपटपूर्ण चर्चा में दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए । मद्यपान से साधु को बचना चाहिए। यदि साधु को इन पाँच प्रमादों से अलिप्त रहना आ जाए तो मजाल है कि उसके प्रात्मप्रदेश पर कर्म-शत्रु अाक्रमण कर दें ! फिर भले ही वह उसके इर्द-गिर्द चक्कर क्यों न लगाता हो !
कहने का तात्पर्य यह है कि यदि मुनिराज कर्म-घूसपैठियों को घूसपैठ का अवसर ही न दे तो उनके सताने का,हैरान/परेशान करने का सवाल ही न उठे । हाँ, उसे घुसपैठ करने का मौका देना न देना, साधु पर निर्भर है । यदि प्रमाद के आचरण को 'कर्मकृत' संज्ञा प्रदान कर, उसका अनुशरण करें तो अघ.पतन हुअा ही समझो ! फिर उसे पतन की गहरी खाई में गिरते कोई बचा नहीं सकेगा । यह तथ्य भलि भांति समझ लेना चाहिये को 'चरमावर्त काल' में प्रमाद-सेवन में कर्म का हाथ नहीं होता ! और यह बात तभी गले उतरेगी जब हम कुटिल कर्म को लीला को अच्छी तरह समझ लगे । इसलिए कर्म का अनुचिंतन करना आवश्यक है । कर्म-विपाक का बिचार आते ही जीव कांप उठता है ।
साम्यं बिभर्ति यः कर्मविपाकं हृदि चिन्तयन् ।
स एव स्याच्चिदानन्दमकरन्दमधवतः ॥८॥१६८॥ अर्थ : हृदय में कर्म-विपाक का चिंतन-मनन करते हए जो समभाव
धारण करता है, वहीं योगी ज्ञानानन्द रुपी पराग का भोगी भ्रमर
होता है ! विवेचन : हे योगीराज ! आप तो भोगी म्रमर हैं, ज्ञानानन्द-पराग का जी भर कर उपभोग करने वाले हैं, आपके हृदय में सदा कर्म-विपाक का चिंतन और मुख पर समता का संवेदन है !
बिना कर्म विपाक-चिंतन के समभाव का वेदन नहीं होता और समभाव के वेदन बिना ज्ञानानन्द का अमृतपान असंभव है । मतलब उपरोक्त श्लोक से तीन बार्ते स्पष्ट होती हैं :
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