________________
कर्मविपाक-चिन्तन
३०५
सहसा : 'दुष्टेन कर्मणा !' कह उठते हैं ! जब वे उपशम-श्रेणी पर आरूढ और ग्यारहवें गुणस्थान पर पहुँचे महर्षि को धक्का मार कर खड्ड में गिराते हुए कर्म को देखते हैं, तब क्रोधाग्नि से उनका रोम .. रोम व्याप्त हो जाता है ! भ्र ुकुटी तन जाती है और मारे प्रवेश के 'हे दुष्ट कर्म !' कह कर चीख पडते हैं ! कर्म के बंधन तोडने के लिये वे पुकारते हैं !
ग्यारहवाँ 'उपशांत मोह' गुणस्थान, कर्म द्वारा रचित अंतिम रक्षापंक्ति ( मोर्चा ) है ! और सदा-सर्वदा सर्व के लिए वह अपराजेय है ! जो सीधे दसवे से बारहवे गुणस्थान पर छलांग मार कर पहुँच जाते हैं. वे इसके शिकार नहीं बनते ।
'उपशांत- मोह' का अर्थ जानते हो ? तो सुनो :
पानी से लबालब भरा एक प्याला है । लेकिन पानी स्वच्छ नहीं है, मटियाला है ! उस में मिट्टी, कंकर सब मिला हुआ है । तुम्हें वह पानी पीना है । जोर की प्यास लगी है । सिवाय उस पानी के कोई चारा नहीं ! तुम उसे महीन कपड़े से छान लोगे । फिर भी पानी स्वच्छ नहीं होता | तब थोडी देर के लिए प्याला नीचे रख दोगे । पानी में रही मिट्टी धीरे-धीरे नीचे बैठ जाएगी ! मैल प्याले के तह में जम जाएगा और धीरज रखोगे तो स्वच्छ पानी ऊपर तैर आएगा ! इस से यही ध्वनित होता है कि पानी में मिट्टी अवश्य है, लेकिन उपशांत है ! ठीक उसी तरह आत्मा में मोह जरूर है, लेकिन नीचे तह जमा हुना है ! अतः आत्मा निर्मल.... मोहरहित दृष्टिगोचर होती है ! लेकिन जिस तरह प्याले को हिलाते ही तह में जमी मिट्टी और मैल उपर उभर आएगा और पानी दुबारा गंदा हो जाएगा । उसी तरह उपशांत मोह वाली आत्मा कोइ दोष से आन्दोलित हुई तो मोह श्रात्मा में व्याप्त हो, उसे गंदा कर मलीन बना देगा !
उपशांत मोह में निर्भयता नहीं होती । हाँ, मोह क्षीण हो जाय, अर्थात् पानी को कंकर-मिट्टी बिना का स्वच्छ बना दिया जाए, बाद में प्याले को भले ही हिलाइए, कंकर-मिट्टी के उभर आने का सवाल ही पैदा नहीं होगा ! उसी भाँति मोह का सर्वथा क्षय होने पर कोई चिंता नहीं । दुनिया का कोई निमित्त कारण उसे मोहाधीन नहीं कर
२०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org